Saturday, November 28, 2009

आग्रह

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गुजर चुकी हैं
कौशाम्बी और नालंदा की सभ्यताएं ,
बीत गया है
मौर्य और गुप्त वंशों का स्वर्ण-काल ,
और मिट गया है
आदिमयुगीन ताम्र-युग |

फिर घोर उद्योगवाद के दौर में
अयोध्या को पाषाण-युग में कैद कर
आपकी पथराई सोच
चाहती क्या है ?

कृपा करो अयोध्या पर !!
वह आजाद होना चाहती है
अतीत के बियाबान से |

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Wednesday, November 25, 2009

नींद को


जब स्वप्नदृष्टा दुनिया
मसरूफ होती है
स्वप्नों की और स्वप्नों सी रंगीनियों में ,
तब देखकर मैं
पल-पल गुजरता वक़्त ,
इंतज़ार किया करता हूँ
तुम्हारे आगमन का |

जानता हूँ,तुम नहीं आओगी
और न ही बुलाओगी ,
इसीलिये सुनने लगता हूँ
तुम्हारे लिए सुरक्षित रखा
मोजार्ट का संगीत ;
पढ़ने लगता हूँ
नए-पुराने उपन्यास;
दोहराता हूँ गिनतियाँ
पहले सीधी फिर उलटी ;
और सोचने लगता हूँ
पतझड़ का पेड़/टूटता कनेर,
झूलती रस्सी/डूबती बस्ती ,
अवन्ती,अनाम/भूला हुआ नाम,
बढ़ता उधार/नवीं कक्षा का प्यार |

इसी तरह, सोच-सोचकर
तुम्हें बुलाने के नए तरीके,
खो जाना चाहता हूँ
कई छोर जोड़कर बनी
खयालों की जंजीरों में ;

और मेरे इन तमाम प्रयासों के बावजूद
जब नहीं आती हो तुम ,
तो जानती हो
खा लेता हूँ दो-चार गोलियाँ,
पटक लेता हूँ दीवार पर सर,
और आखिर में
लिख लिया करता हूँ
कुछ बेरहम कवितायें,
आधी रात को ;
जो धारण कर रौद्र रूप
मारा करती हैं
दिन भर |

कुछ इस तरह के बन गए हैं
आजकल के दिन,
और आजकल की रातें,
और महसूस कर रहा हूँ तुम्हारी जरूरत
पलकर अभाव में
तुम्हारे |

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स्वाभिमान--(निजता का बोध)


नयनाभिराम बन जाते हो,
प्रभु शीशों को तुम भाते हो ;
शत-शत जन को पुनरपि-पुनरपि
मोहित करते जाते हो |

तुम पुष्प बनो और महको तुम ,ये गौरव तुम्हें मुबारक हो;
मैं कंटक हूँ,मर्यादित हूँ,है कंटक बन अभिमान मुझे ||

१-
म्रदु हाथों से पाला जाये,
और गहनों में ढाला जाये ;
फिर नवयौवन की सूरत के
अंगों में डाला जाये |

तुम स्वर्ण बनो और दमको तुम,ये आभा तुम्हें मुबारक हो,
मैं लौह बन क्षुधा मिटाऊं यदि,लोहा बन तब अभिमान मुझे ||

२-
युग-युग से अपना नाता है,
पर नभ तुमको छू जाता है ;
हिम खण्डों पर बसे-बसे
जग तुमको कब पाता है |

तुम गिरि बने अप्राप्य रहो,ये स्थिरता तुम्हें मुबारक हो,
मैं सरिता हूँ और बहती हूँ,सरिता बनकर अभिमान मुझे ||

३-
लहरें स्वप्नों की आती होगी,
सुन्दरता जग की भाती होगी ;
उस सुरभित प्रवास में बस
असफलता कब आती होगी |

तुम सफल बने लवलीन रहो,ये उन्नतता तुम्हें मुबारक हो,
मैं राही हूँ,भटकूँगा भी,राही बनकर अभिमान मुझे ||

४-
जब नवचेतना जगाती होगी,
रणदुन्दुभी बजाती होगी ;
वातासों में जब लिपट-लिपट
रक्तों की बू आती होगी |

ऐसे में यदि तुम हास करो,तो मुस्कानें तुम्हें मुबारक हों,
मैं युद्धभूमि की धूलि बनूँ ,कुचले जाकर अभिमान मुझे ||


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Wednesday, October 21, 2009

आवागमन


वे गहन वेदना के क्षणों में,
और गूंजते सन्नाटों में ,
अक्सर ढूँढा करती हैं
हमारी खुशियाँ |

जब वे जिया करती हैं
मिलने की तीव्र उत्कंठा लिए.
तब हम होते हैं
जल्दबाजी में ;
बघारते हैं
एक से बढ़कर एक थ्योरी ,
और भर देते हैं कूडेदान
बीमारी लिए अनेकानेक लिफाफों से |

जब वे लुटाना चाहती हैं
बेहिसाब प्यार,
तब हम ढूँढ रहे होते हैं
खुशियाँ ईजाद करने के नए तरीके ;
हमारी आँखों में होती हैं
कैबरे नाचती लड़कियां ,
और होठों पर रहती है
एक झूठी मुस्कान |

हम खा रहे होते हैं
ग्रीन वैली के रेस्तराँ में चिकन-पुलाव,
और रुक-रुक कर लेते हैं
शैम्पेन के घूँट ,
तब घोर अंधकारमय रातों में
वे रोटियाँ बेलते हुए
फूंकती हैं चूल्हे ,
और  रोक लिया करती हैं 
अश्रुपूर्ण नयनों को किसी तरह बरसने से  |

बचपन की पुचकार,दुलार,चुम्बन
और कंपकंपाती रातों में
छाती से चिपककर गुजारे दिन ;
सब भुला देते हैं हम
महान बनने की प्रक्रिया में |

एक दिन
जागते हैं हम
सदियों की निद्रा से,
और अर्द्ध-रात्रि में
देखे सपने की तरह
जब उतरते हैं चमचमाती कारों से,
तब वे
अपनी पथराई आँखों में समाये सपने साकार करने
और देखने हमें
प्रतिक्षण,प्रतिपल
एक सुदूर जहान को
कर चुकी होती हैं
गमन | 

Saturday, October 10, 2009

खामोशी

उन दिनों
मैं समझा करता था
तुम्हें सर्वस्व ,
और भटकता था
तुम्हारे साहचर्य में
बना हुआ
'अहम् ब्रह्मास्मि' |

उस भोले से मस्तिष्क के
सबसे सुदूर कोने को भी
कहाँ ज्ञात था ,
कि जब हम गुजार रहे होंगे
निश्चिंत रातें
सोफे पर लम्बी टांगें पसारकर,
तुम आओगी एक दिन
मरुस्थलीय हवाओं सरीखी,
और उड़ा ले जाओगी सब कुछ ;

और स्थिति ऐसी होगी
दस बाई दस की खूंखार दीवारों से चिपककर,
उन काली स्याह रातों में
हम ताका करेंगे,
अविरल गति से झूलता पंखा ;
और तुम करती हुई वीभत्स अट्टाहास
कभी पंखे से लटकाकर
हमें बना दोगी
चमगादड़

जाने तुम कौन हो !
तुम्हारा वजूद आज तक कभी
कम्पायमान हुआ ही नहीं;
उन दिनों जब प्रेम नहीं करता था
और आज जब प्रेम करता हूँ;
हाथों में चिपकी
जिरेनियम की पत्तियों सरीखी
तीखी सी महक
तुम मिटती ही नहीं |

आज
तुम्हारे सामने
गिड़गिडाता हूँ,
सर पटकता हूँ ,
और करता हूँ लम्बी-लम्बी
संस्कृतबद्ध क्षमा-याचनाएँ ,
मैं सचमुच चाहता हूँ निजात ;
प्लीज़ चली जाओ
और बख्श दो मुझे
एक हलकी सी हंसी
फीकी ही सही ;

मुझे खाना है
माँ के हाथ का बना चूरमा
और करनी हैं
बहनों की शादी |

Wednesday, October 7, 2009

साक्षात्कार

उसे जगाया गया था
कच्ची नींद से
इस एकाकी यात्रा के लिए
आखिर उसके निर्निमेष पलकों में
यही तो समाया था
अनेकानेक वर्षों से

अपना समस्त चेतन,शौर्य
और निश्चय
उस क्षण में उँडेलकर
वह बढ़ने लगा

कान नहीं थे उसके पास
सवाल सुनने को
और कदम अनुमति नहीं देते थे
थम जाने को
वह परिधि के दायरे से बाहर निकल
चूस लेना चाहता था नियति का लहू

शायद वह अधनींदा था
या फिर वह कौन अदृश्य शक्ति थी
जो उसे खींचे जा रही थी
एक प्रकाश की ओर

एक दिन
उसके विचरण का आकाश सिमट गया
जल सूख गया
और राहें ख़त्म हुई
पर ये क्या?
जो दिख रहा था
वह न था
जो उसकी उनींदी आँखों में व्याप्त था
और जिसके लिए वह बढ़ता चला आया था
अकेला
स्वयं की पग-ध्वनि सुनता
..वह क्या था
जो आज उसे बिना कामना के ही मिला था

वह मृत्यु नहीं थी
न ही आपदा थी
उस दिन
वह किशोरवय मन
पहली बार खड़ा था
अथाह शून्य के समक्ष

क्षुद्र,
असहाय
और अनिश्चयग्रस्त

.......

Friday, September 18, 2009

प्यार और लड़कियाँ

वे हाथ में हाथ डालकर 
घूमा करती हैं 
सिनेमा और पार्क 
मानो मिल रहे हों 
चुम्बकों के दो विपरीत ध्रुव 

मिलते ही एकांत 
घंटों बतियाती हैं मोबाइल पर 
गज़लें,गुलाब 
कॉलेज,किताब 
मौसम,हवा 
बादल,घटा
वफाई,बेवफाई 
और गढे मुर्दों की खुदाई 

उन्हें आती हैं सैकडों दलीलें 
शैम्पू से लेकर इकॉनोमी तक 
ये जहान छोटा हो जाता है 
प्यार करने वाली लड़कियों के आगे 

उनकी बातों में 
लहराता है आत्म-विश्वास 
और आँखों से छलकता है 
युद्ध-विजय का भाव 

प्यार करने वाली लड़कियां 
प्रेम में हो जाती हैं सतर्क 
और वार्तालाप के उपरांत 
नंबर कर देती हैं 'डिलीट'

वे लड़कियाँ जिन्हें प्यार करना नहीं आता 
गाँव और कस्बों की होती हैं 
वे प्रेम में पड़कर 
खो देती हैं वाचालता 
और ओढ़ लेती हैं शर्म का साया 
वे भूल जाती हैं 
रोटियों को गोल-मटोल बेलना 
और दाल में नमक 
चाय में चीनी डालना 

उन्हें नहीं आता बतियाना 
प्यार सुनने पर 
हो जाती हैं लाल 
और छू लेने पर 
शर्म से दोहरी 

वे होती हैं 
माता,पिता की आज्ञाकारिणी 
और रखती हैं 
सोलह सोमवार का व्रत 

प्यार न करने वाली लड़कियाँ 
एकांत मिलते ही 
ताका करती हैं आसमान 
घंटों तक टुकुर-टुकुर 
शायद 
किसी फ़रिश्ते की आस में 
जिसका उद्भव होगा 
किसी जगमगाते सितारे की तरह 
और निर्लिप्त होकर 
शून्य से गुजरते हुए ले जायेगा 
सुदूर आसमान में 
विचरते बादलों की प्राचीर के पार
एक शुभ्र,धवल जहान में 

Sunday, September 13, 2009

एक पाती

कलमों की नोंकें टेढ़ी हो जाती हैं
आपके व्यवहार की शिष्टता लिखते हुए
और जुबान 
तालू से चिपक जाती है
आपके सिद्धांतों की परिपुष्टता के आगे
इसलिए कभी साहस नहीं जुटा पाता
आपका गुणगान करने का

पर आज मेरे हाथ फड़फड़ा रहे हैं
और मस्तिष्क उद्वेलित हो उठा है
अब आपका महिमा मंडन किये बिना
नियंत्रण नहीं होता

मेरे भी चक्षु गवाह हैं
कि सत्ता आदमी को
हैवान बना देती है
पर इतना भी नहीं
कि जिन्हें तुम अपना(?) कहते हो
उन्हीं को महसूस न करो

आपको कभी विचार आया
जब इस देश का
एक अदना सा आदमी
माथे पर निराशा,कुंठा की बूँदें समेटे
और सर पर श्रम और आशा की गठरी उठाये
जब इन कंगूरों और अट्टालिकाओं वाले स्मारकों से गुजरेगा
तो क्या उसका सर श्रद्धा से नतमस्तक होगा?
क्या आप महसूस करती हैं
कि रंगबिरंगी रोशनी से गुजरते हुए
वह मन में दोहराएगा
"बुद्धं शरणम् गच्छामि
धर्मं शरणम् गच्छामि"

जीवन के विशेष दिवसों के भव्य आयोजनों
और स्मारकों,उद्यानों के निर्माण के समय
कभी आपके जेहन में उन गंगूरामों की याद भी आ जाया करे
जिनके अभाव कर रहे हैं उनकी हत्याएँ
या उस सुधा की
जो अपनी दीदी की शादी की फ़िक्र में
इतनी बड़ी हो गयी है
कि खुद शादी लायक हो गयी है
कभी आपकी करोड़ों,अरबों की योजनाओं का
एक तुच्छ हिस्सा उन्हें भी मिले

आपने अनादर किया है
अपने प्रदेश की उस ज़मीन का
जहाँ बुद्ध ने शिक्षासूत्र पिरोये
और उन अम्बेडकर का
जो जीवनपर्यंत मूर्तिपूजा के विरोध में रहे
अब उनकी मूर्तियाँ बनाकर
आप उन्हीं 
के सिद्धांतों की अवमानना करती हैं

काश आप कभी समझें
कि श्रद्धा
ऊँचे-ऊँचे मेहराबों वाले घेरों
और आदमकद मूर्तियों में नहीं उपजती
और ना ही छायादार उद्यानों में
ठहरा करती है

पहले उनके सिर से वो गठरी उतारो
जो सदियों से रखी है
और चेहरे के वे जख्म भर दो
जो बिन मांगे की पहचान बन गए हैं
फिर थमा देना मूर्तियाँ
और दिखा देना
उद्यानों की रंगीनियाँ

(दुनिया के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश की राजनीति को सर्वाधिक प्रभावित करने वाले और सबसे बड़े प्रदेश की माननीया मुख्यमंत्री के नाम)

Friday, September 11, 2009

अभिलाषा

वे भुलाती हुई
हमारी सारी वेदनाएँ और सुख
समय और उम्र
जन्म ले लेती हैं
जटिल से जटिल परिस्थितियों में

उनके आश्रय में हम
लहरों की अंगडाई सुला देते हैं
आकाश की ऊँचाई मिटा देते हैं
आँधियों में दीप जलाने लगते हैं
पत्थर की छाती पर नव-अंकुर उगाने लगते हैं
वे उडाकर हमारी नींदें
चाहती हैं नियति का सर कलम करना

ऐसी ही होती हैं अभिलाषाएँ
छोटी,बड़ी,स्वान्तःसुखाय या परिजनहिताय

जैसे मेरी अभिलाषा कहती है कि
जब मैं नव-सृष्टि के सृजन को आगे बढूँ
तो तुम आओ मेरे साथ
और जब शिथिलता मेरे बदन पर आकर बंधक बनाने का करे प्रयास
तो तुम मुझे प्रेरित करती
अपने हाथों से पिलाओ...ओक भर पानी

Thursday, September 10, 2009

रात्रि बेला की ख्वाहिशें

गली-गली बने शिवालयों में
नीरव खामोशी
घुप्प अंधकार
और धुंधले चित्रों की क्रमहीन श्रंखला

मेरे प्यारे बनारस की धरती पर
मैं भरा हूँ
तुम्हारी दुनिया में
तुम्हारे आभामंडल की दुनिया
अंतहीन जैसे समय
चमकीली जैसे तारे

तुम्हारे बारे में सोचना
जैसे निहारना
दुग्ध-धवल झीनी चादर से
सुदूर आसमान
या सुनना
भादों के किसी बरसाती दिन
बूंदों का टिपटिपाना
या पढ़ना दुनिया की सबसे खूबसूरत कविता

तुम्हारा ख्याल
जैसे
अवरोहों को ठुकराती
पीत पुष्प पल्लवित नदी
या एक ज्योति
जो काल-कवलित शलभों को
कर देती है आलौकिक

मिट जाती है
बदन पर पुती हुई कालिख
और लज्जित मस्तक
हो जाता है निष्कलंक
जो नसीब हो तेरा स्पर्श
सारा विश्व बन जाता है गौड़
जो मिले तेरे आँचल में सोने का सुख

पतझड़ की किसी रात में
जो असमय जाग उठूँ
कोई भुतहा सपना देखकर
तो झकझोरता है मेरा अवचेतन
मुझे तोड़ देने चाहिए
लोहे के सींखचे
और गिरा देनी चाहिए
कंक्रीट की दीवारें
अपनी स्वतंत्रता के लिए

माँ ....

वे कौन लोग है??
जो हमें कैद कर गए हैं
खुली हवाओं में

हमारी दुनिया बहुत भिन्न है

सृजन का सौंदर्य हो
या धर्म की पराकाष्ठा  
न्याय,संस्कृति,साधन  
बल,बुद्धि और धन    
साथ में  
भक्ति,ढोंग,पाखण्ड  
क्रोध,शोक,रोग  
वासना और निर्लज्जता  
सब कुछ तुम्हारे साए में रहते हैं  
हमारे पास है केवल  
पसीने और कीचड़ की दुर्गन्ध  

हमारे शब्द सीमित हैं  
और शब्दों के मायने भी  
हमारी भुजाएँ 
पहाड़ काटने वाली शक्ति पाकर  
बँधी रहती हैं 
और हमें नहीं सिखाया जाता  
इच्छाएँ करना  
बल्कि हम स्वतः ही सीख जाते हैं  
इच्छाओं और अभिलाषाओं का दमन करना  

हमारे सपनों को खा जाते हैं  
युग्मों में उड़कर आने वाले  
बड़ी चोंचों वाले गिद्ध  
और यदि बच भी जाएँ  
तो पड़े-पड़े हो जाते हैं जंग-ग्रस्त  

तुम्हारी और मेरी दुनिया  
इतनी भिन्न है कि 
हम अलग-अलग प्रजातियों का  
प्रतिनिधित्व करते हैं  

तुम्हारी दुनिया चमचमाती है  
कारों में दौड़ती है  
और समय से पहले बालिग़ हो जाती है  
तुम्हारी दुनिया में  
देशी,विदेशी संगीत की लहरियाँ हैं  
मैकडोनाल्ड से लेकर  
इन्टरनेट तक का  
खुशहाल संसार है  
तुम्हारी दुनिया को 
एकरसता से मोहभंग भी हो जाता है  
इसलिए  
गगनचुम्बी इमारतें बनाती है  
करोड़ों के जुए खेलती है  
और कभी-कभी  
क्लबों में फूहड़ता से नाचने भी लगती है  

हमारी दुनिया  
बरगद के ठूंठ किनारे बने  
मटमैले छप्परों में जन्म लेती है  
गँदले नालों में पलती है 
और बिना बोर्नवीटा खाए वृद्ध हो जाती है  
समय से पहले  
हमारी दुनिया  
कारखाने सिर पर उठाकर चलती है  
चैत की गर्म दुपहरी में जीती है  
कोयलों में पलती है  
और गुमनाम होकर वहीं दफ़न हो जाती है  

हमारे बदन में भरी हुई है  
असहनीय दुर्गन्ध  
और हमारे चेहरे पर हैं  
कीचड़ के धब्बे  
जिन्हें तुम हिकारत भरी नज़रों से देखा करते हो  

हमारी दुनिया है  
आशाओं,न्यूनताओं की दुनिया  
और न्यूनताएँ देखने से  
तुम्हारी आँखों को  
हो जाता है मोतियाबिंद  

हमारी दुनिया  
संघर्षों और निर्बलताओं की दुनिया है  
और निर्बलताओं के बारे में सोचने को  
शायद तुम्हारा मस्तिष्क नहीं देता इजाज़त  

तुम्हारी दुनिया में समाये हैं  
सैकड़ों वायरस  
जो मकडी के जाल की तरह  
फैलते जाते हैं  
हमारी दुनिया सत्य की दुनिया है  
और सत्य हमेशा संघर्षवान होता है  

जैसे हमारे अनेकानेक उत्पाद  
जन्म लेते ही तुम्हारे हो जाते हैं  
इसी तरह  
हमारे दुःख,दर्द क्यों नहीं ले लेते?  

हाँ  
जब तुम्हें लेने होते हैं पुरस्कार  
बड़े-बड़े सम्मान  
या चमचमाना होता है 
दूधिया रौशनी में  
तब तुम मिटाना चाहते हो 
हमारा अन्धकार  

पर हमारा अन्धकार तो  
हमारी परछाई बन गया है  
जीवन भर  
रहेगा हमकदम  
और उस पार का भी क्या कहना  
आखिर ईश्वर भी तो तुम्हारी खूँटी से बँधा है

Saturday, August 15, 2009

वे अल्हड़ दिन....

वे बादलों पर बैठकर आसमान घूमने के दिन थे
महकते फूलों पे बैठी तितलियाँ पकड़ने के दिन थे

वे पोसमपा खेलने झूला झूलने के दिन थे
नंगे पाँव गाँव की सरहदे पार करने के दिन थे

वे शीशम की छाँव तले चिड़ियाँ निहारने के दिन थे
रहट की बाल्टियाँ चढाने,उतारने के दिन थे

वे अलस्सुबह दोस्त को बुलाने के दिन थे
किरपू के बाग से करोंदे चुराने के दिन थे

वे नीम से कौवों को भगाने के दिन थे
बहती पुरबई सीने से लगाने के दिन थे

वे अधपके बेर चबाने के दिन थे
वे बेसुरी बांसुरी बजाने के दिन थे

अम्मा से चवन्नी पाने के दिन थे
किताबों में फूल छिपाने के दिन थे

वे रेत में पाँव बनाने के दिन थे
रंगीन गुब्बारे उडाने के दिन थे

बकरियों को मेड़ों पे चराने के दिन थे
छत से काई की परतें हटाने के दिन थे

भोली बहना को सताने के दिन थे
माँ को हर बात बताने के दिन थे

वे टंकी में पैर डुबाने के दिन थे
मदमस्त अंदाज़ में रोने गाने के दिन थे

बिना शरमाए नंगे नहाने के दिन थे
खाते,पीते फुर्र उड़ जाने के दिन थे

सोंधास लिए लायी-चना खाने के दिन थे
मिटटी के घर बनाने-गिराने के दिन थे

नयी बुश्शर्ट पहनकर इतराने के दिन थे
अरहर के पेड़ों में छिप जाने के दिन थे

वे रूठने के बाद मन जाने के दिन थे
कल्पना की उडानें उडाने के दिन थे

वे सोये हुए अल्हड ख्वाबों से दिन थे
सुर्ख महकते हुए नर्म गुलाबों से दिन थे

Monday, August 3, 2009

ये जख्मों का किस्सा पुराना है...

ये कैसी हलचल है,कैसा आना-जाना है
जाओ,मयकशी है यहाँ,ये मेरा आशियाना है
.
वक़्त ने भुला दिए हैं,अब न कुरेदो इनको
गोया जल उठूँगा,ये जख्मों का किस्सा पुराना है
.
कौन जाने अबकी बिछ्ड़े तो कल को कब मिलें
आजमा ले आज,जितना आजमाना है
.
आवारा-मिज़ाजी हमारी सीखने ही न देगी
क्या छिपाना है जहाँ में और क्या दिखाना है
.
बेसबब इंतज़ार में रुत गयी यूँ ही
वाँ बेरुखी का आलम है,हर पल बहाना है
.
मुश्किलों से जोडो यारी,बतलायेंगी वही
समझते हैं जिसको अपना,शख्स वो बेगाना है

Saturday, August 1, 2009

वो प्रेम का त्यौहार हूँ

मधुऋतु की कोमल बयार हूँ
गले का आशातीत हार हूँ
आया हूँ तुमसे मिलने
मैं जीवन की मधुता का सार हूँ

खुशबू बिखेरूँ चमन में
कर दूँ समर्पित आगमन में
मुरझा न सके जिसको अनल
मैं सुमन वो नव आकार हूँ

मलय जिसे उड़ा न सके
जलाधार जिसे डिगा न सके
निकलेंगी लहरी हर ऋतु
वो वीणा वरद का तार हूँ

हूँ रंग वो जीवन भरूँ
अनुभूति जो सुखानंद दूँ
इति न हो जिसकी कभी
वो प्रेम का त्यौहार हूँ

अवसाद, कुंठा, विषमता
संशय, भय और अगमता
इन्हें क्षीण, क्षुद्र, भंगुर करूँ
मैं वो प्रबल हथियार हूँ

सिन्धुतृषा को बिंदु से भर दूँ
मरुवन को मैं पुष्पित कर दूँ
नीरस को बहुरस-रंगी कर दूँ
मैं वो ललित कलाकार हूँ

धरती से लेकर ब्रह्माण्ड तक
कण-कण और हर एक खंड तक
गूंजेगा जो दिग-दिगंत तक
मैं शब्द वो साकार हूँ

Abhivyakti ki khaatir

कभी-कभी सोचता हूँ
बंद कर दूँ ये कविता लिखना

कविताएँ पढ़कर
कभी लुटाये होंगे सैनिकों ने प्राण
और बदली गयी होगी दुनिया किसी ज़माने में
पर मैं आश्वस्त हूँ
मेरी कविता से कुछ नहीं हो सकता

न तो मैं मुर्दों में जान फूंक सकता हूँ
न मैं बदहालों को कुछ दिला सकता हूँ
मेरी चार पंक्तियाँ न तो सरकारें बदल सकती हैं
न ही ह्रदय परिवर्तन करा सकती हैं

नहीं मुमकिन मिटा दूँ हिन्दू-मुस्लिम झगडे
दिला दूँ गति उन कामों को जो हैं कहीं ठहरे
न मुझे किसी प्रेयसी के लिए लिखना है
न ही मुझे शायर या कवि बनना है

शायद ही मेरी कविताओं से किसी परेशानी का हल निकले
या मेरी स्वयं की ही मुश्किलें सुलझे

फिर मैं क्यूँ लिखूं?
कविताएँ लिखना है शायद निश्चिंतों की जागीर
मैं हूँ उस गरीब गृहस्थ की तरह
जो कराना चाहता है अखंड रामायण और भगवदगीता का पाठ
पर गरीबी हमेशा आ जाती है आड़े

ये सब जानते हुए भी
ख़ुशी के उन अनन्यतम क्षणों में
यदि दो पंक्तियाँ ठहर जाएँ जेहन में
तो छटपटाती रहती हैं जल बिन मछली जैसी
कागजी समंदर में गोते लगाने को व्याकुल
गले में अटके कौर की तरह
उठती रहती है इक हूक

और जब उतार दूँ उन्हें एक कागज़ पर
तो लगता है
उतर गया है एक बोझा
जो बरसों से कन्धों पे रखा था

Thursday, July 23, 2009

चैन,सुकून,शान्ति

इस तरह मुँह फुलाए क्यूँ बैठे हो
गुस्सा न हो
अब मुझे क्या मालूम था
तुम सचमुच ही जान निकालकर देखोगे
. . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . .
"तुम्हारे लिए मैं जान दे सकता हूँ"
मेरा ऐसा कहना तुम्हें नाटकीय लगता है
क्या कहा तुमने?
"हर कोई यही कहता है-इसमें नया क्या है"
हाँ सच है हर कोई कहता है
और शाहरुख़ खान ने भी पचासों फिल्मों में कहा है

मुश्किल तो यही होती है
जो हम कहना चाहते हैं
वह कोई पहले ही कह चूका होता है
और जो हम करना चाहते हैं
वह भी लोग बहुत पहले कर चुके होते हैं
प्रेम,त्याग,समर्पण,हत्या और आत्महत्या

"नहीं,मैं झूठा वादा नहीं करता ..सच में"
. . . . . . . . . . . . . . . . . . . .. . . . . .
अब तुम्हें जान नहीं मिली तो भले झूठा कहो
वह तो थी ही नहीं
तुमने पहचाना नहीं
मेरी आत्मा बहुत पहले मर गयी थी
गोबर से लिपे आँगन की उपटती पपड़ियों की तरह
छीली गयी थी,परत दर परत

आजकल तो बस अपनी लाश कन्धों पर लादे फिरता था
चलो वो भी बोझा उतर गया

Sunday, May 10, 2009

समय का ये कौन सा दौर है
लगता है
मौसम ने घोंट के सारी संवेदनाएं
घोल दी है तन्हाई
न स्मृति के फाटक पर यादों की दस्तक होती है
न चित्रों चलचित्रों से हास्य रुदन की भावनाएं आती हैं
बस विचारों की खींचातानी मची रहती है
.
.
सूरज लगता है कोई बंधुआ मजदूर
मद्धम पड़ गयी है उसके चेहरे की लालिमा
क्योंकि करवाया जा रहा है जबरन कठोर परिश्रम

दुनिया मुर्दों की बस्ती दिखती है
जिसमें आदमी बना है कठपुतली
और उसकी गतिविधियाँ
परसंचालित मशीनी क्रियाकलाप
.
.
भावनाएं यदि सच में मर गयी हें
तो क्यूँ नहीं देते इन लाचार पेडों को आराम
जो निर्जन बस्ती में बेवजह oxygen दे रहे हैं

और यदि भावनाएं अभी तक हैं जिंदा
तो परखने का होता है मन
कोई पकड़ ले नसेनी
तो मैं आसमान पर चढ़ कर
उतार लूँ चाँद
और देखूं
कितने बच्चे मामा के खोने से होते हैं ग़मगीन
और कितने प्रेमी अपनी महबूबा के वियोग में करते हैं आत्महत्याएँ


असलियत तो ये है
कि जो है वही रहता है
फिर ना जाने इस खींचातानी और उधेड़बुन से
मुझे मिलती है कौन से ग्यारहवे रस की अनुभूति

Saturday, May 9, 2009

अवधारणाएं

हम अक्सर बहुत सारी अवधारणाएं सच मान लेते हैं
गाहे-बगाहे,जाने -अनजाने
.
हमें दिखाई देता है
सूरज का हर शाम पर्वत पार सो जाना
और अल सुबह मेहनती किसान की तरह जाग जाना
हमें चाँद का आकार लगता है
अनामिका के नाखून से छोटा
धरती लगती है तश्तरी की तरह चपटी
और हमें इन्द्रधनुषी रंग दिखते हैं
आसमान के कैनवास पर
एक परिपक्व कलाकार की कच्चे रंगों से उकेरी गयी तस्वीर
थोडी देर में रंग धुल जाते हैं
चित्रकार पुनः बना देता है
रंग पुनः मिट जाते हैं
और बनाने मिटने का सिलसिला चलता रहता है अनवरत
.
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लेकिन बिना सूरज,चाँद पर जाये
बिना धरती की वक्रता मापे
और बिना इन्द्रधनुषी रंगों की गुणवत्ता परखे
हमें मालूम है
सूरज का शाम को दिखाई न देना है हमारी दृश्य सीमा
जो क्षितिज के उस पार नहीं जा सकती
चाँद का आकार नाखून से अनंत गुना ज्यादा है
जो समेट सकता है दुनिया के कई देश
धरती है गोल
और लट्टू की तरह चक्कर लगाती है अपनी धुरी पर
और हमें पता है
इन्द्रधनुषी रंग कच्चे या पक्के न होकर
हैं श्वेत प्रकाश के विवर्तन का परिणाम
.
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रात के पौने तीन बजे
तुमने पूछा है 'platonic love' का meaning
मैं सुबह तक जानने की कर रहा हूँ कोशिश
.
बजाये इसके की धोती बांधे मास्टरजी ने हमें सिखाये हैं
मीरा कृष्ण के प्रेम गीत
दुष्यंत-शकुंतला और विक्रम-उर्वशी की प्रेम कहानी
या गोपियों की विरह कथाएं
आज मैंने पहचाना है प्रेम
और मुझे प्रेम की अवधारणा सच्ची लगी है

::: :) DC (: ::::
सुबह-सुबह खिलती हुई धूप
और फुदकते हुए पंछी
हाँ ये समय है
इमली वाली गली में दर्जी की दुकान खुलने का
और चूड़ी वाले का महिलाओं को रोककर चूड़ी पहनने का आग्रह करने का
.
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तुम मसरूफ हों
हो सकता है गूँथ रही हो आटा
और हवा बिखरा देती है मुँह पर गेसू
तुम झुँझलाकर बार-बार कोहनी से करती हो पीछे
या हो सकता है
सोलह सोमवार व्रत रखने के तुम्हारे संकल्प का आज है तेरहवां सोमवार
तुम दुपट्टे का पल्लू पकडे सिर झुकाए
जल चढाने जा रही हो पुराने शिव मंदिर
मुमकिन है
तुम आँगन से सीधे बाहर आते कमरे में
जो दो तरफ से खुला है
अपनी सहेलियों के साथ बुन रही हो स्वेटर
अचानक हंस पड़ती हो खिलखिलाकर
.

शहर के बाहर एकांत में बैठा मैं चाहता हूँ
अपनी व्यस्त दिनचर्या से कुछ समय निकालकर तुम आओ मिलने
और मुझे सुनाओ
कैसे रोटी तवे पर रखते-रखते आज फिर से तुम्हारा हाथ जल गया
या मंदिर के रास्ते में कैसे लोटा तुम्हारे हाथ से छूट गया
और सामने की दुकान पर बैठे लड़के तुम पर हंस पड़े
या तुम्हारी वो कौन सी सहेली को
तुम्हारा मुझसे मिलना पसंद नहीं
.
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इच्छा होती है
कि भुलाकर अपनी निराश भावुकता
और मिटाकर थोपी गयी नैतिकता
थोडा जी लूँ तुम्हारे प्यार की मासूमियत
आज कर लें जी भर के बातें
.
लेकिन तुम हमेशा की तरह
शायद आज भी मसरूफ हों

::: :) DC (: :::

Tuesday, May 5, 2009

एक यातना

यह यातना है
जिसके बारे में कुछ नहीं कहा जाना चाहिए
पर ये सच है कि
जब दुनिया देख रही है
काले स्याह अंधकार में रंगीन सपने
रात्रि के तीसरे पहर में
निद्राविहीन मैं
चाँद,तारों और चमगादड़ो का साथी बना हुआ हूँ

कुछ ख्वाबो को बुनता हूँ
फिर तोड़ता हूँ
टूटे ख्वाबो को
दोबारा जोड़ता हूँ

इस घोर तिमिर में
दीवारों से कुछ कुरेदता हूँ
दसो दिशाओं में
कोई आहट खोजता हूँ

तमाम विषमतायें
अनजान त्रासदियाँ
और सघन कुंठाओं से ग्रस्त
विस्तृत नभ के सुदूर कोने में
शांत घरोंदा ढूँढता हूँ

यह यातना है कि
रात्रि के तीसरे पहर में
मैं निद्राविहीन हूँ

::: :) DC (: :::

Sunday, April 5, 2009

एक कविता का जन्म


शाम से कुछ गुमसुम सा था
रात हुई तो अपने कमरे में गया
किताबों के चंद पन्ने पलटे
कुछ देश दुनिया के समाचार सुने
फिर लाइट बुझाकर लेट गया

पर नींद थी आँखों से कोसों दूर
थोडा बाहर टहला
फिर सोने का एक और व्यर्थ प्रयास
.
.
.
तभी बाहर कुछ आवाजें सुनाई दी
खिड़की खोली तो आसमां में दिखाई दिया चाँद
जो अपनी चांदनी से कमरे को महकाने लगा
फिर खामोशी को तोड़ती कुछ कुत्तों की आवाजें

अचानक एक उमंग सी भर गयी
दिल धड़का ..हाथ फड़का
कलम उठाई और कागज़ जैसा जो भी दिखा
उस पर कुछ-कुछ लिख दिया
और एक सुखद एहसास के साथ चादर तान कर सो गया

सुबह जब आँख खुली तो देखा
सिरहाने एक नयी कविता मुस्कुरा रही थी

Wednesday, April 1, 2009

"________"


रस्मों को आज हम भुलाते चले गए
जख्म दर जख्म गले लगाते चले गए
...............
उन आंखों में लाने को चार खुशियाँ
हम अपनी आंखों पर पर्दा गिराते चले गए
...............
निकले थे कूचे से चंद अरमाँ लेकर
उनके लिए ख़ुद का ठिकाना भुलाते चले गए
...............
उलझी हुई थी जिंदगी की रस्सी पहले से ही
वो गाँठ पर गाँठ लगाते चले गए
...............
जिंदगी से हमे था याराना लेकिन क्या करिए
जिंदगी की खुशियाँ मैखाने में उडाते चले गए
................
मेरे वजूद का हुआ कब उन्हें एहसास
मेरे जनाजे में वो गीत गुनगुनाते चले गए
.................
अजीब समां था यार DC की महफिल में
जो गिरा था उसी को गिराते चले गए

Saturday, March 28, 2009

परछाई


बचपन में जब मैं गाँव की गलियों में चलता था
तब मेरे साथ चलती थी मेरी परछाई

वही परछाई ....
कभी लम्बी लगी कभी छोटी
कभी आगे तो कभी पीछे होती
कभी दीवारों पर चलती
और कभी पेड़ों को छूती

ऐसा भी हुआ ...
जब हमने अपनी परछाई को दूसरों की परछाई से बड़ा करना चाहा
और कभी दूसरों की परछाई कुचल देनी भी चाही
कभी आगे दौडे तो कभी पीछे हटे
किसी के सर पर पैर रखे तो किसी के हाथों से पैर मिलाये
इसी तरह दिन बीते अपने
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.
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एक रोज जब मैं बड़ा हुआ
तो देखा मेरे साथ न थी वो परछाई
कहीं गायब हो गयी है
उसी की तलाश कर रहा हूँ

::: :) DC (: :::

एक तलाश


मैने बरसो तुम्हे तलाशा है
कई सदिया गुजर गयी है
तुम्हारी राह देखते हुए

दिन की तन्हाइयों में
या रात की गहराइयों में
सदा करता रहा आस
कब पूरी हो तुम्हारी तलाश

बादलों की ध्वनि में
मुझे सुनाई दी तुम्हारी आवाज़
और बसंती हवाओं में
महसूस हुआ तुम्हारा ही साज़

भोर के कोहरे में
दूर दिखाई देता तुम्हारा अक्स
बारिश की बूँदों में
मन को भिगोता तुम्हारा दृश्य

खामोश पगडंडी पे आहट की आस
चातक सी प्यास और नक्षत्र की तलाश
टूटते दरखतों और ढहते मकानों के बीच
करता रहा जीवन की तलाश

तुम जीवंत- अजीवंत प्रतिमानों में व्याप्त
या जीवन तुममें समाहित
पर मेरे ह्रदयांगण में है अटूट विश्वास
पूरी होगी तुम्हारी तलाश

::: :) DC (: :::

Friday, March 27, 2009

एक शिकायत





मुझे शिकायत है आईने से
नहीं दिखाता मुझे मेरा असली चेहरा
दिखाता है मुझे एक नकली नकाब में
जिसमें चेहरे पर शिकन की कोई रेखाएँ नहीं होती
और मुँह पर मुस्कराहट होती है
तब मेरे गालों के गड्ढे ढँक जाते है
और छिप जाती है बालों की सफेदी
मुझे लगता है कहीं ना कहीं कुछ गड़बड़ है
शायद आईना धूमिल पड़ गया है
या फिर मेरे ऐनक पर धूल जम गयी है...

::: :) DC (: :::

Sunday, March 22, 2009

:: आशियाना ::



जब तुम पहली बार मिले थे ,
तब एक तूफान सा उमड़ा था
और मैं भी कितना नादाँ था
तूफाँ में आशियाँ बना रहा था
..... ........ ......
तब किसी ने टोका नहीं
"अमाँ ये कैसा पागलपन है
तूफाँ में आशियाने बनाते हो
ऐसे आशियाने कब तक टिकते हैं"
अब भी सोचता हूँ कि किसी ने रोका क्यो नहीं
शायद आशियाना उजड़ते देखना चाहते थे
या किसी को इतनी फ़ुर्सत कहाँ.
.
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लेकिन जब मेरा आशियाँ खाक-ए-दफ़न हो गया था
तो एक ने पूछा था "मियाँ! तुम तो तूफाँ मे आशियाँ बना रहे थे ,क्या हुआ?"
कोई और बोला-"काश!
हम से हिदायत ली होती बनाने से पहले"
ये दुनिया आशियाँ दफ़न होने के बाद हितैषी बनती है
शायद आशियाँ उजड़ते देखने का शौक है
या दुनिया के पास पहले देखने को आँखें नहीं होती
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अब जबकि इस बात को बीते एक अरसा हो गया है
और आशियाँ से जुड़े ख्वाबो पर मिट्टी की तह जम गई है
इस मुकम्मल दुनिया को तब भी चैन कहाँ
किसी की हिदायत कानों पड़ती है
"भाई! आदमी के पास एक खुद का आशियाँ तो होना चाहिए
ऐसे कब तक रहोगे"
लेकिन मैं उन्हें कैसे समझाऊ
मुझे केवल तूफाँ में काम करने का शौक है
और आजकल जिसकी दस्तक होती है
वो तूफाँ नहीं बस एक हल्का सा झोंका है
जो दरवाजे को धकेल कर जाता है
दरवाजा धीरे-धीरे खुलता है और कुछ दूर जाकर रुक जाता है

::: :) DC (: :::