Sunday, April 5, 2009

एक कविता का जन्म


शाम से कुछ गुमसुम सा था
रात हुई तो अपने कमरे में गया
किताबों के चंद पन्ने पलटे
कुछ देश दुनिया के समाचार सुने
फिर लाइट बुझाकर लेट गया

पर नींद थी आँखों से कोसों दूर
थोडा बाहर टहला
फिर सोने का एक और व्यर्थ प्रयास
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तभी बाहर कुछ आवाजें सुनाई दी
खिड़की खोली तो आसमां में दिखाई दिया चाँद
जो अपनी चांदनी से कमरे को महकाने लगा
फिर खामोशी को तोड़ती कुछ कुत्तों की आवाजें

अचानक एक उमंग सी भर गयी
दिल धड़का ..हाथ फड़का
कलम उठाई और कागज़ जैसा जो भी दिखा
उस पर कुछ-कुछ लिख दिया
और एक सुखद एहसास के साथ चादर तान कर सो गया

सुबह जब आँख खुली तो देखा
सिरहाने एक नयी कविता मुस्कुरा रही थी

Wednesday, April 1, 2009

"________"


रस्मों को आज हम भुलाते चले गए
जख्म दर जख्म गले लगाते चले गए
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उन आंखों में लाने को चार खुशियाँ
हम अपनी आंखों पर पर्दा गिराते चले गए
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निकले थे कूचे से चंद अरमाँ लेकर
उनके लिए ख़ुद का ठिकाना भुलाते चले गए
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उलझी हुई थी जिंदगी की रस्सी पहले से ही
वो गाँठ पर गाँठ लगाते चले गए
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जिंदगी से हमे था याराना लेकिन क्या करिए
जिंदगी की खुशियाँ मैखाने में उडाते चले गए
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मेरे वजूद का हुआ कब उन्हें एहसास
मेरे जनाजे में वो गीत गुनगुनाते चले गए
.................
अजीब समां था यार DC की महफिल में
जो गिरा था उसी को गिराते चले गए