कभी-कभी हरी घास पर बैठे हुए, पेड़ों से टपकते पीले पत्तों और गाड़ियों से आती होर्न की आवाजों के बीच आप एक कबूतर को पिछले एक घंटे से देखे जा रहे होते हैं, तब जाहिर है वह कबूतर नहीं होता जिसे आप देख रहे होते हैं या वह होर्न की आवाज़ नहीं होती जिसे आप सुन रहे होते हैं. वह आपका अतीत होता है, जो आपको वीतरागी बना देता है. ऐसी स्थिति में अधिकांशतः आपको अपना बचपन याद आता है.
ये बच्चों की कवितायेँ हैं या दूसरे शब्दों में, हर आदमी के बचे-खुचे बचपन की कवितायेँ हैं, जो हाल ही में पढ़ी. ये ऐसी कवितायेँ हैं, जिन्हें समझने के लिए आलोचकों की जरूरत नहीं होती, जिन्हें पढ़ते हुए आप अपनी विचारधारा को एक किनारे रख देते हैं और जो आपकी सेहत के लिए नुकसानदेह नहीं होती.
१: "बच्चे" (इजेत साराल्जिक)
बच्चो, मैं हैमलेट नहीं
या फ्लोरेंस के ऊपर बहता बादल नहीं,
तुम मुझे जानते हो
बायीं ओर वाली पहली गली में हैं घर मेरा |
पढाई ख़त्म कर जिस दिन तुम
नोट्स और किताबों को गट्ठर जला दोगे
युद्ध-समाप्ति के बाद सीमा से तुम लौट रहे होगे
या घूमते-फिरते इजिप्ट या कहीं और से लौट रहे होगे;
प्रथम प्यार की अग्नि-ज्वाला में जले बिना तुम
उससे अधिक निखरकर उभरोगे;
प्रमोशन पा-पाकर जब तुम उद्योग-देवता
बन जाओगे
और जब, मेरी ही तरह
तुम्हारे सर के बाल सफ़ेद हो जाएँ,
बच्चो, जब जीवन का आधा वक़्त ख़त्म हो जाये,
अपनी माताओं से कहना
कि तुम दुबारा जन्म लेना चाहते हो |
२: "मुंह में दूध की बिटकिनी* डाले तामारा** क्या कहता है" (इजेत साराल्जिक)
सिर्फ इतना
बिल्ली के बच्चों को कोई परेशान न करे
भालू के बच्चों को जंगल में कोई गोली न मारे
गोले-बारूद से बार्च के पेड़ मुरझा न जाएँ
दुनिया के सारे लोग दोस्त बनकर रहें
मौत जिनको ले गयी है
फिर से लौटा दे उन्हें
भूकंप न हो
सारे विमान सुरक्षित उतरें
मेरे पापा अपनी कविता ख़त्म कर लें
सारे पापा कवि बन जाएँ|
* दूध की बोतल का निप्पल
** बच्चा
३: आदिवासी ओरांव-गीत
माँ, गाली देगी तो
जी भर कर गाली दे,
पर घर में|
गाँव के अखाड़े में
नाचते समय गाली मत देना;
वहाँ मेरी उम्र के
मेरे दोस्त होते हैं
और धांगडियाँ* भी होती हैं
सह नहीं पाऊंगा मैं |
* आदिवासी अविवाहित कन्याएँ
इस कविता को पढ़कर मैं हँसे बिना न रह सका (खिलखिलाने से कम, पर मुस्कुराने से ज्यादा)
४: बड़ों का समय (तानिकावा सुंतारो)
कोई बच्चा
हफ्ते भर में
हो जाता है
कितना चतुर चालाक
सीख लेता है पचास नए शब्द
बदल लेता है खुद को कितना |
हफ्ता बीतने तक
कोई बड़ा व्यक्ति
जैसा था, वैसा ही रहता है;
हफ्ते भर बाद भी वह
पत्रिका का पन्ना
पलटता रहता है ;
बच्चे को डांट लगाने तक में
हफ्ता भर लग जाता है बड़े को |
५: दुनिया का नक्शा (यून सेक जूंग)
घर से बनाकर लाने को मुझसे
कहा गया है दुनिया का नक्शा
कल रात भर
लगा रहा मैं
बना न पाया अब तक नक्शा |
न तुम्हारा देश, न मेरा देश
तुम्हारा राज, मेरा राज
न होकर ऐसा यदि
होती सारी दुनिया एक देश
तब होता कितना आसान
बना पाना उसका नक्शा |
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