Sunday, September 13, 2009

एक पाती

कलमों की नोंकें टेढ़ी हो जाती हैं
आपके व्यवहार की शिष्टता लिखते हुए
और जुबान 
तालू से चिपक जाती है
आपके सिद्धांतों की परिपुष्टता के आगे
इसलिए कभी साहस नहीं जुटा पाता
आपका गुणगान करने का

पर आज मेरे हाथ फड़फड़ा रहे हैं
और मस्तिष्क उद्वेलित हो उठा है
अब आपका महिमा मंडन किये बिना
नियंत्रण नहीं होता

मेरे भी चक्षु गवाह हैं
कि सत्ता आदमी को
हैवान बना देती है
पर इतना भी नहीं
कि जिन्हें तुम अपना(?) कहते हो
उन्हीं को महसूस न करो

आपको कभी विचार आया
जब इस देश का
एक अदना सा आदमी
माथे पर निराशा,कुंठा की बूँदें समेटे
और सर पर श्रम और आशा की गठरी उठाये
जब इन कंगूरों और अट्टालिकाओं वाले स्मारकों से गुजरेगा
तो क्या उसका सर श्रद्धा से नतमस्तक होगा?
क्या आप महसूस करती हैं
कि रंगबिरंगी रोशनी से गुजरते हुए
वह मन में दोहराएगा
"बुद्धं शरणम् गच्छामि
धर्मं शरणम् गच्छामि"

जीवन के विशेष दिवसों के भव्य आयोजनों
और स्मारकों,उद्यानों के निर्माण के समय
कभी आपके जेहन में उन गंगूरामों की याद भी आ जाया करे
जिनके अभाव कर रहे हैं उनकी हत्याएँ
या उस सुधा की
जो अपनी दीदी की शादी की फ़िक्र में
इतनी बड़ी हो गयी है
कि खुद शादी लायक हो गयी है
कभी आपकी करोड़ों,अरबों की योजनाओं का
एक तुच्छ हिस्सा उन्हें भी मिले

आपने अनादर किया है
अपने प्रदेश की उस ज़मीन का
जहाँ बुद्ध ने शिक्षासूत्र पिरोये
और उन अम्बेडकर का
जो जीवनपर्यंत मूर्तिपूजा के विरोध में रहे
अब उनकी मूर्तियाँ बनाकर
आप उन्हीं 
के सिद्धांतों की अवमानना करती हैं

काश आप कभी समझें
कि श्रद्धा
ऊँचे-ऊँचे मेहराबों वाले घेरों
और आदमकद मूर्तियों में नहीं उपजती
और ना ही छायादार उद्यानों में
ठहरा करती है

पहले उनके सिर से वो गठरी उतारो
जो सदियों से रखी है
और चेहरे के वे जख्म भर दो
जो बिन मांगे की पहचान बन गए हैं
फिर थमा देना मूर्तियाँ
और दिखा देना
उद्यानों की रंगीनियाँ

(दुनिया के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश की राजनीति को सर्वाधिक प्रभावित करने वाले और सबसे बड़े प्रदेश की माननीया मुख्यमंत्री के नाम)

4 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत जबरदस्त कटाक्ष, बधाई स्वीकारें.

वाणी गीत said...

आम जनता के इस सवाल को अपनी आवाज देने का बहुत आभार ..!!

DC said...

sameer ji aur vaani ji..bahut-bahut dhanyawaad ..aise hi protsaahan karte rahe

श्रद्धा जैन said...

मेरे भी चक्षु गवाह हैं
कि सत्ता आदमी को
हैवान बना देती है
पर इतना भी नहीं
कि जिन्हें तुम अपना(?) कहते हो
उन्हीं को महसूस न करो

waah Dharmendra aap to bahut gahra dekhte ho aur likhte ho
aapki ye soch to kitni det tak man ko shant banati rahi