Tuesday, August 17, 2010

शान्ति के लिए लिखी गयी अवसाद ग्रसित कविता


जमीन से पहाड़ की चोटी
पर पहुँचते हुए
निकलती हर पसीने की बूँद के साथ ,
फूटता है ह्रदय में ,
खुशियों का एक नया निर्झर |

जमीन पर और चोटी पर
स्थित आदमी में है इतना फर्क,
कि जमीन के आदमी को
डर नहीं है गिर जाने का |

पूर्णता,पर्याप्ति और सम्पन्नता
द्योतक हैं समाप्ति के |
.
हे प्रभु ! हमें इतनी रौशनी न दे
कि बाकी दुनिया देखने से
चौंधिया जाएँ आँखें ;
न देना इतना पैसा
कि भूल जाएँ गरीबी के चनों का स्वाद ;
और हे प्रभु ! नहीं चाहिए इतनी आजादी
कि समाप्त हो जाएँ
जंजीरें तोड़ने की खुशियाँ |

इतनी बड़ी ज़िन्दगी
गुजारने के लिए जिजीविषा के साथ ,
चाहिए अवश्य
कुछ अन्धकार, कुछ गरीबी ,
थोडा पसीना और कुछ दुश्मन |

क्योंकि जहाँ खुलते हैं शान्ति के दरवाज़े ,
वहाँ से शुरू होती हैं
अशांति की गहरी खाइयाँ |