Saturday, October 10, 2009

खामोशी

उन दिनों
मैं समझा करता था
तुम्हें सर्वस्व ,
और भटकता था
तुम्हारे साहचर्य में
बना हुआ
'अहम् ब्रह्मास्मि' |

उस भोले से मस्तिष्क के
सबसे सुदूर कोने को भी
कहाँ ज्ञात था ,
कि जब हम गुजार रहे होंगे
निश्चिंत रातें
सोफे पर लम्बी टांगें पसारकर,
तुम आओगी एक दिन
मरुस्थलीय हवाओं सरीखी,
और उड़ा ले जाओगी सब कुछ ;

और स्थिति ऐसी होगी
दस बाई दस की खूंखार दीवारों से चिपककर,
उन काली स्याह रातों में
हम ताका करेंगे,
अविरल गति से झूलता पंखा ;
और तुम करती हुई वीभत्स अट्टाहास
कभी पंखे से लटकाकर
हमें बना दोगी
चमगादड़

जाने तुम कौन हो !
तुम्हारा वजूद आज तक कभी
कम्पायमान हुआ ही नहीं;
उन दिनों जब प्रेम नहीं करता था
और आज जब प्रेम करता हूँ;
हाथों में चिपकी
जिरेनियम की पत्तियों सरीखी
तीखी सी महक
तुम मिटती ही नहीं |

आज
तुम्हारे सामने
गिड़गिडाता हूँ,
सर पटकता हूँ ,
और करता हूँ लम्बी-लम्बी
संस्कृतबद्ध क्षमा-याचनाएँ ,
मैं सचमुच चाहता हूँ निजात ;
प्लीज़ चली जाओ
और बख्श दो मुझे
एक हलकी सी हंसी
फीकी ही सही ;

मुझे खाना है
माँ के हाथ का बना चूरमा
और करनी हैं
बहनों की शादी |

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