Monday, October 25, 2010

" दो भाव "

१:
कभी-कभी सोचता हूँ
बंद कर दूँ ये कविता लिखना ;

कविताएँ पढ़कर
कभी लुटाये होंगे सैनिकों ने प्राण ,
और बदली गयी होगी दुनिया
किसी ज़माने में ,
पर मैं आश्वस्त हूँ
मेरी कविता से कुछ नहीं हो सकता ;

न तो मैं मुर्दों में जान फूंक सकता हूँ ,
न मैं बदहालों को कुछ दिला सकता हूँ ,
मेरी चार पंक्तियाँ न तो सरकारें बदल सकती हैं ,
न ही ह्रदय परिवर्तन करा सकती हैं |

नहीं मुमकिन मिटा दूँ हिन्दू-मुस्लिम झगड़े,
दिला दूँ गति उन कामों को जो हैं कहीं ठहरे;
न मुझे किसी प्रेयसी के लिए लिखना है,
और न ही शायर या कवि बनना है |

शायद ही मेरी कविताओं से किसी परेशानी का हल निकले,
या मेरी स्वयं की ही मुश्किलें सुलझे

फिर मैं क्यूँ लिखूं?
कविताएँ लिखना है शायद
निश्चिंतों की जागीर |

यह सब जानते हुए भी
उन गहन अवसाद के क्षणों में
यदि दो पंक्तियाँ ठहर जाएँ जेहन में,
तो छटपटाती रहती हैं
जल बिन मछली जैसी,
कागजी समुद्र में गोते लगाने को व्याकुल;
गले में अटके कौर की तरह,
उठती रहती है एक हूक |

और जब उतार दूँ उन्हें एक कागज़ पर,
तो लगता है
उतर गया है एक बोझा
जो बरसों से कन्धों पे रखा था|

२:
मैं जब नदी देखता हूँ
तो नदी बन जाता हूँ,
और होने लगता हूँ
अजस्त्र प्रवाहित ;

मैं जब हवा देखता* हूँ
तो हवा बन जता हूँ,
और महकने लगता हूँ
सघन वन-कुंजों में ;

मैं जब पहाड़ देखता हूँ
तो पहाड़ बन जाता हूँ,
और हो जाता हूँ
धवल-गिरि की ऊँचाई पर स्थित |

आजकल मैं
कविता की तरफ भूलकर भी नहीं देखता,
कवि होकर महान बनने से अच्छा है
एक इंसान बनकर थोडा कम महान हुआ जाये ;
इसीलिए ,
दूर ही रहता हूँ
कविताओं से आजकल |
[बिम्ब कहीं पढ़ी हुई एक कविता से प्रेरित । कवि और कविता दोनों याद नहीं । ]

8 comments:

Aditya Jain said...

wao!!!!!!...
Gud going my bro..

डिम्पल मल्होत्रा said...

आपकी कविताएँ पढ़ने में इतनी भली लगती है कि तब कुछ लिखने का मन नहीं करता.पढ़कर चुपचाप लौट जाती हूँ..घूँट घूँट कर के काली चाय पीने का सा मजा है...जब हवा बनना चाहते हो तो महकाना चाहते हो न कि Destroyer’ बन के सब नहस तहस कर दो. Shelley की इक कविता थी बहुत लम्बी थी पर अच्छी थी Ode to the West Wind ' उसमे वो nature बनना चाहता है हवा नदी ...वो जानता है possible नहीं फिर भी वो प्राथना करनी नहीं छोड़ता .एक इंसान बनकर थोडा कम महान हुआ जाये ;)

DC said...

are dimple ji aap chuchap mat laut jaya kariye ..
kuchh likh diya kariye to hume bhi prerna mile ki hume bhi padhne wale maujood h :)

bilkul mahkana hi chahte h..par mahkane ke tareeko ko lekar hi to dwand kee shuruaat hoti h jo aksar awsaad kee seema tak pahuch jaya karti h

khair ..shukriya

अपूर्व said...

हर चीज के मूल मे उसका कोई सारतत्व होता है..जो उसके अस्तित्व को पारिभाषित करता है..उसकी प्रकृति बनता है.आत्मा की तरह..जैसे नदी के लिये प्रवाहमय होना..हवा के लिये गंधवाही होना..पहाड़ के लिये स्थावर होना..यहाँ जब कवि स्रष्टि के इन आधारभूत तत्वों मे समाहित होना चाहता है..तो वह अपने इसी मूलरूप मे प्रकृतिचित्त होने की ओर बढ़ता है..और यह किसी साररूप को पा लेने जैसा नही है..स्वयं साररूप हो जाना है..अद्वैतदर्शन मे ’तत्वमसि’ भी इसी को कहते हैं...यही कवि होना भी है..अपने समय मे घुल जाना..जल मे बर्फ़ की तरह नही..जल मे प्रवाह की तरह..फिर महानता या चाह वगैरह तो बहुत बाहर की चीजें हैं..छिलकों की तरह..खैर मुझे पता नही कि कवि का यही अभीष्ट रहा कविता मे..मगर पहली कविता के बाह्यजगत से पलायन के बाद कवि की दूसरी कविता मे पूर्णतया प्रकृतिस्थ हो जाने की कामना मुझे कुछ ऐसी ही लगी...

अपूर्व said...

कुछ देरी से ही सही मगर पहुंचा यहां..और काफ़ी कुछ पढ़ने-गहने को मिला...आभार!!

DC said...

@ अपूर्व
नहीं, मुझे नहीं लगता कि हर चीज़ के मूल में एक सारतत्व है .. बल्कि हर वस्तु या भाव का मूल दो अंतर्द्वंदों का होना है , ये अंतर्द्वंद दो वस्तुओं के रूप में भी हो सकते हैं, या दो भाव भी हो सकते हैं या एक वस्तु , एक भाव !!
इनमें से एक दूसरे पर डोमिनेट भी कर सकता है , पर दोनों तत्व मौजूद अवश्य होते हैं ..
जैसे नदी का अस्तित्व उसके गतिमान होने और ठहरने के अंतर्द्वंद का परिणाम है, जहाँ बहने का पक्ष प्रमुख है, पर हम ये भी जानते हैं कि हर मौसम में नदी एक ही गति से नहीं बहती यानी कोई न कोई विरोधी तत्व अवश्य मौजूद है जो कि उसके बहने की गति को प्रभावित कर रहा है ..वही हवा के सम्बन्ध में ..कभी हवा ठहर जाती है और कभी आँधी बन जाती है ..और मनुष्य जीवन का अस्तित्व का कारण भी केवल उसका चेतनमय(जिसे आत्मा कहते हैं ) होना नहीं है , अपितु ये दो विरोधी प्रवृत्तियों पदार्थ और आत्मा के या जड़ और चेतन के द्वन्द का परिणाम है , जहाँ एक तत्व कभी प्रमुख रहता है , कभी दूसरा
इस लिहाज़ से कवि का उद्देश्य केवल उस द्वन्द को दिखाना है(और केवल दिखाना नहीं है क्योंकि कवि स्वयं द्वन्द में ग्रसित है ) जो कि बाह्य भौतिक जगत और उसके आतंरिक जगत में मौजूद है

DC said...

और आपका भी आभार कि यहाँ आये तो भले ही देर से :)

crazy devil said...

At times, I have also struggled lots of these similar thoughts :)