Saturday, November 28, 2009

आग्रह

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गुजर चुकी हैं
कौशाम्बी और नालंदा की सभ्यताएं ,
बीत गया है
मौर्य और गुप्त वंशों का स्वर्ण-काल ,
और मिट गया है
आदिमयुगीन ताम्र-युग |

फिर घोर उद्योगवाद के दौर में
अयोध्या को पाषाण-युग में कैद कर
आपकी पथराई सोच
चाहती क्या है ?

कृपा करो अयोध्या पर !!
वह आजाद होना चाहती है
अतीत के बियाबान से |

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Wednesday, November 25, 2009

नींद को


जब स्वप्नदृष्टा दुनिया
मसरूफ होती है
स्वप्नों की और स्वप्नों सी रंगीनियों में ,
तब देखकर मैं
पल-पल गुजरता वक़्त ,
इंतज़ार किया करता हूँ
तुम्हारे आगमन का |

जानता हूँ,तुम नहीं आओगी
और न ही बुलाओगी ,
इसीलिये सुनने लगता हूँ
तुम्हारे लिए सुरक्षित रखा
मोजार्ट का संगीत ;
पढ़ने लगता हूँ
नए-पुराने उपन्यास;
दोहराता हूँ गिनतियाँ
पहले सीधी फिर उलटी ;
और सोचने लगता हूँ
पतझड़ का पेड़/टूटता कनेर,
झूलती रस्सी/डूबती बस्ती ,
अवन्ती,अनाम/भूला हुआ नाम,
बढ़ता उधार/नवीं कक्षा का प्यार |

इसी तरह, सोच-सोचकर
तुम्हें बुलाने के नए तरीके,
खो जाना चाहता हूँ
कई छोर जोड़कर बनी
खयालों की जंजीरों में ;

और मेरे इन तमाम प्रयासों के बावजूद
जब नहीं आती हो तुम ,
तो जानती हो
खा लेता हूँ दो-चार गोलियाँ,
पटक लेता हूँ दीवार पर सर,
और आखिर में
लिख लिया करता हूँ
कुछ बेरहम कवितायें,
आधी रात को ;
जो धारण कर रौद्र रूप
मारा करती हैं
दिन भर |

कुछ इस तरह के बन गए हैं
आजकल के दिन,
और आजकल की रातें,
और महसूस कर रहा हूँ तुम्हारी जरूरत
पलकर अभाव में
तुम्हारे |

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स्वाभिमान--(निजता का बोध)


नयनाभिराम बन जाते हो,
प्रभु शीशों को तुम भाते हो ;
शत-शत जन को पुनरपि-पुनरपि
मोहित करते जाते हो |

तुम पुष्प बनो और महको तुम ,ये गौरव तुम्हें मुबारक हो;
मैं कंटक हूँ,मर्यादित हूँ,है कंटक बन अभिमान मुझे ||

१-
म्रदु हाथों से पाला जाये,
और गहनों में ढाला जाये ;
फिर नवयौवन की सूरत के
अंगों में डाला जाये |

तुम स्वर्ण बनो और दमको तुम,ये आभा तुम्हें मुबारक हो,
मैं लौह बन क्षुधा मिटाऊं यदि,लोहा बन तब अभिमान मुझे ||

२-
युग-युग से अपना नाता है,
पर नभ तुमको छू जाता है ;
हिम खण्डों पर बसे-बसे
जग तुमको कब पाता है |

तुम गिरि बने अप्राप्य रहो,ये स्थिरता तुम्हें मुबारक हो,
मैं सरिता हूँ और बहती हूँ,सरिता बनकर अभिमान मुझे ||

३-
लहरें स्वप्नों की आती होगी,
सुन्दरता जग की भाती होगी ;
उस सुरभित प्रवास में बस
असफलता कब आती होगी |

तुम सफल बने लवलीन रहो,ये उन्नतता तुम्हें मुबारक हो,
मैं राही हूँ,भटकूँगा भी,राही बनकर अभिमान मुझे ||

४-
जब नवचेतना जगाती होगी,
रणदुन्दुभी बजाती होगी ;
वातासों में जब लिपट-लिपट
रक्तों की बू आती होगी |

ऐसे में यदि तुम हास करो,तो मुस्कानें तुम्हें मुबारक हों,
मैं युद्धभूमि की धूलि बनूँ ,कुचले जाकर अभिमान मुझे ||


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