Tuesday, July 10, 2012

एक बखत की बात

...और उस रात वह हड़बड़ाकर उठ पड़ा | पहला ख़याल उसके मन में आया "ओह! यह सपना था" | इससे कुछ सुकून मिला | उसका दिल अभी भी जोरों से धड़क रहा था | यही कारण कि उसे सामान्य होने में वक़्त लगा |

धीरे-धीरे उसे ये रात जानी-पहचानी सी मालूम होने लगी | उसे कमरे की हर चीज़ में विशेषता दिखने लगी | ये टेबल, चार्जर, कागज़, कलम .. उसे लगा कि एक लम्बा अरसा हो गया जब उसने चीज़ों को इस नज़र से देखा था | उसने कसम खायी कि अब वह अपनी ज़िन्दगी को बदलेगा | पिछले एक साल में उसकी ज़िन्दगी तिल-तिल कर ख़त्म हुई है और वह देखता आया है | सत्य वह है, जो इस समय दिख रहा है | इस तरह दुनियादारी में ज़िन्दगी मरती जाये, इससे बेहतर है मर जाना | उसे 'मेटामोर्फोसिस' का ख़याल आया, 'साम्सा' का ख़याल आया और क्रमशः 'काफ्का' का ख़याल आया |

रात बढ़ रही थी और साथ में उसकी खुमारी भी बढ़ती जा रही थी | वह भलीभांति जानता है कि ऐसी रातों को परिणति तक कैसे पहुँचाया जाता है | ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ी | कलम सिरहाने ही मिल गयी | उसने डायरी उठाई, एक पन्ना लिखा बिना तारीख डाले और सो गया |

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