मैं लिखना चाहता हूँ
एक कविता
कि समेट लूं सारा दर्द
और उनके साये में बसी तुम्हारी ज़िन्दगी ;
फिर जब मैं आऊं तुम्हारे पास,
तो समेट लो तुम
मुझे अपने आँचल में |
मैं भुला देना चाहता हूँ
तुम्हारे सारे दुःख,
सारे दुस्वप्न,
जिन्होंने
रोक रखा है तुम्हें
देखने से,
इस हसीन मौसम के नज़ारे |
मैं तुम्हें उठा के वहाँ से
जहाँ हो तुम,
बिठा देना चाहता हूँ वहाँ,
जहाँ से दिखती है
तुम्हारी खिलखिलाती हंसी |
मैं चाहता हूँ ये ,
मैं चाहता हूँ वो ,
रोज़-ओ-शब-ओ-शाम-ओ-सहर,
हर पल, निश्चल ;
पर जाने कौन है ,
जो हमारे चाहने के बावजूद
मटिया-मेट कर जाता है सब कुछ ;
और मैं सोचता रह जाता हूँ
कि चाहने से आखिर क्या होता है ?
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