Thursday, February 11, 2010

उद्विग्न-व्याकुलता

मेघ पुनः संदेशा लाए,
मग में कोई नयन बिछाए |
कैसे आऊँ द्वार तुम्हारे ,
तेरे-मेरे नेह के पथ में
घिर आते हैं जग के साए |

निशा गयी और प्रात हुआ अब,स्वप्न-आकृति छूटी मन की |
एक-दूसरे से मिल न सके , यह विडम्बना है जीवन की ||

धूसर दिवस आज प्रिय तुम बिन,
विप्लव की बेला में दुर्दिन |
मुखर मौन संकेत बताते ,
अश्रुपूर्ण सारी रातों भर
विरहा मन रहता है खिन ||

ज्ञान सुप्त है, क्रिया नहीं कुछ, इच्छा क्यों पूरी हो मन की |
एक-दूसरे से मिल न सके , यह विडम्बना है जीवन की ||

अमराई की रुत गयी अब ,
संवेदन के भ्रम-जाल थे सब |
मोती पृथक-पृथक होना ही था
फैली माला टूट गयी जब |

भूले खग की नियति अभागी,फिर क्यों छाँव मिले मधुबन की |
एक-दूसरे से मिल न सके , यह विडम्बना है जीवन की ||

5 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत उम्दा रचना!

डिम्पल मल्होत्रा said...

बिरह में मन कैसा कैसा होता है टूटी माला,भूला खग..in one word..superb

Himanshu Pandey said...

कविता ने अनोखी प्रतीति दी ! यह मेघ-संदेश से उपजी हुई कातरता, दुश्चिंता, अभाव - सब गहुआ गये हैं अन्तर में ! निकल गयी है अकुलाई-सी कविता ।

तीसरे हिस्से में ऊपर की परम्परा का निर्वाह नहीं हुआ है शायद ! छन्द रचने का विधान जमा था मुझे यह । पहले पाँच पंक्तियाँ, फिर दो पंक्तियाँ- aabca dd. अंतिम खण्ड में शायद एक पंक्ति छूट गयी है ।

DC said...

जी आपने सही कहा..दरअसल प्रथम दो खंड एक अलग समय पर और अंतिम खंड एक अलग समय पर लिखा गया और मुझे अंतिम खंड में छंद की परंपरा निर्वाह करने का ध्यान नहीं रहा ..पहले मेरी इच्छा तो पांच और दो के प्रारूप में ही लिखने की थी..
आपने इतने गौर से पढ़ा और कमी बताई , इस हेतु आभारी हूँ

altaaf.... said...

kavita kafhi achi hai...
aur isse jyada kehne mein asmarth hun... :)