Wednesday, December 8, 2010

कुछ अधार्मिक बातें

तुम्हें जब दिखानी थी रौशनी
तब-तब तुम
पहनाते रहे बेड़ियाँ
और कैद करते रहे
घुप्प अंधकारों भरे तहखानों में

तुम्हें जहाँ बसानी थी बस्तियाँ
उजाड़कर उन्हें
तुम बनाते थे महल

जब अपेक्षा थी
तुम करोगे दुनिया को संगठित
तब पथभ्रमित कर
तुम पैदा करते थे दरारें

"अत्यंत भयानक होता है
सच्चाई को जानना
जानना झूठों को
अपने भाग्य को पहचानना

भरभराकर टूट पड़ना
बचपन के महल
जीने की चाह में
पीते रहे गरल

वह नहीं है बाहर
न ही मूर्तिमानों में
निश्चित रूप से
नहीं है आसमानों में

अब और नहीं होती
तानाशाही स्वीकार
ढोया नहीं जाता
दंडों का भार

अत्यंत भयानक होता है
सच्चाई को जानना
जानना झूठों को
अपने भाग्य को पहचानना "


क्योंकि मैं नहीं देखता तुम्हें
बादलों में,
हवाओं में,
या शून्य में

क्योंकि मैं नहीं सुन सकता तुम्हें
गड़गड़ाहट में,
घंटों में,
अजानों में

क्योंकि मैं नहीं फांद सकता पर्वत
बिना क्रमशः डग धरे

क्योंकि मैं नहीं लुट सकता
अमरत्व पाने के लिए

क्योंकि अस्वीकार है मुझे 'भाग्य'
हर प्रश्न का उत्तर

क्योंकि तुम्हारा दर्शन
शुरू और ख़त्म होता है
तुम्हारे जन्मदाता के साथ

इसलिए,
हे दुनिया के महान धर्मो! (आप कहेंगे कि वाहकों)
मुझे क्षमा करना
चाहें तो आप मुझे समझ सकते हैं
माओवादी, नास्तिक
या फिर चाइनीज़ स्पाई
और पटक सकते हैं नरक में
या अगले जन्म में बना सकते हैं 'सूअर'
पर और नहीं पिया जाता
छलावे में ज़हर |

6 comments:

nilesh mathur said...

कमाल की रचना है, तारीफ़ के लिए शब्द नहीं है, बेहतरीन रचना!

DC said...

shukriya nilesh ji

दर्पण साह said...

आपके फेसबुक प्रोफाइल से यहाँ तक पहुंचा !

क्योंकि मैं नहीं लुट सकता
अमरत्व पाने के लिए...


और फ़िर...

कवि होकर महान बनने से अच्छा है
एक इंसान बनकर थोडा कम महान हुआ जाये ;
इसीलिए ,
दूर ही रहता हूँ
कविताओं से आजकल.

दोनों (तीनों) कवितायें स्थूल रूप से बिल्कुल अलग होते हुए भी एक ही मनोवृति का एक्स्टेंशन लगीं...
एक ही फ्रेम ऑव माईंड से उपजी:
डिस-इल्यूज़न ! मोह भंग !!
बहरहाल, दोनों ही कवितायें अपनी लिखी सी लगी.
बेशक ये तारीफ़ नहीं. क्यूंकि हैविंग सेड डेट (अपनी लिखी सी लगी) अब तारीफ़ अप्रत्यक्ष आत्मश्लाघा ही होगी ! :-)
पर दोनों कविताओं में कुछ है, कुछ साधारण सा लिखा पर असाधारण वक्तव्य.
PS: 'हवा देखने' के ऊपर * चिन्ह लगाने के लिए साधुवाद. :-D

DC said...

सबसे पहले आपको भी साधुवाद, मेरे * लगाने की मेहनत को जाया नहीं होने दिया :)
बेशक तारीफ पाना कविताओं का उद्देश्य भी नहीं, हाँ उनके बारे में बतियाना जरूर उनके अस्तित्व को बनाये रखने में मददगार रहता है
हम्म ..आपका कहना सही है, ये दोनों ही कविताएँ मोहभंग से उपजी हैं और अब चूंकि अब मैं मोहभंग की अवस्था से गुज़र चुका हूँ, इसलिए कह सकता हूँ कि किसी चीज़ से मोहभंग होना ही उसे समझाने का सबसे बेहतर तरीका है ..किसी वस्तु से चिपककर आप उसके त्रिआयामों का अध्ययन नहीं कर सकते ..आपको एक निश्चित दूरी बनानी ही पड़ती है..वैसे ये सब भी आत्मश्लाघा नहीं है , बस अपना अनुभव है और इसलिए कविताये भी आपको अपनी सी ही लगेगी :)

Yayaver said...

behatreen kavita hai...likhte rahiye !

Anand Singh said...

आपकी तीनों कविताओं में यथास्थिति के ख़िलाफ़ विद्रोह झलकता है जो एक अच्छे कवि की निशानी है.
आशा करता हूँ कि आपके मन में चल रहा द्वन्द आपको कविता से दूर करते हुए भी कविता लिखने को प्रेरित करता रहेगा.
लेकिन यह भी उम्मीद करता हूँ कि आप महज़ अच्छे कवि ही न रह जाएँ.....

और हाँ!आपका प्रोफाइल पढ़कर एक रोमांचकारी ख़ुशी हुई...सिर्फ़ इसलिए नहीं कि मैं भी ITBHU का छात्र रह चुका हूँ बल्कि इसलिए भी कि शासक वर्ग की इच्छा से स्वतंत्र, ऐसे कुलीन संस्थानों में भी संवेदनशील छात्र आ ही जाते हैं जो अपने आप को मुनाफ़ा कमाने की मशीन का एक पुर्जा नहीं बल्कि एक इंसान समझते हैं. मेरा ब्लॉग पढ़कर मेरे और मेरे बारे में थोड़ा बहुत तो पता चल ही गया होगा. उम्मीद है कि हमारा संवाद आगे भी जारी रहेगा...

क्रांतिकारी अभिवादन सहित,
आनन्द
anand.inqalab@gmail.com