Monday, September 13, 2010

" समय-संगीत "

तुम्हें जाना है | इस बार मेरे आंसू नहीं झर रहे हैं, मेरी संवेदनाएं भी किसी आनंदकुंज के विहार पर गयी हैं और मैं तुमसे रात भर SMS करने के लिए झगड़ भी नहीं रहा हूँ | इस बार हमारे बीच सन्नाटा पसरा है | एक मुखर मौन |
जिन्होंने केवल हँसना और रोना सीखा है , वे निश्चय ही दुनिया के एक बड़े सुख से वंचित हैं , जहाँ हमें किसी की अपेक्षा नहीं रहती और दुनिया भी हमसे बेखबर रहती है | शायद ब्रह्म भी कुछ ऐसा ही होता होगा |

"चाय पियें?"
उत्तर की परवाह किये बिना तुम्हारे कदम स्टेशन के बाहर बने टी-स्टाल की ओर बढ़ गए और जब तक मैं शून्य से लौटूँ , तुमने मेरे हाथ में एक गरम चाय का गिलास थमा दिया है | हम अन्दर घुसने की बजाय दुकान के बाहर जमे एक पत्थर पर बैठ गए हैं |
"अच्छी है " इस बार मैंने कहा |
"ह्म्म्म"
बगल में एक पुस्तक की दुकान है | मैं जल्दी चाय ख़त्म कर उधर पहुँचता हूँ | बाहर से सारी दुकान रोजगार समाचारों और मनोहर कहानियों से भरी मालूम होती है | अन्दर स्थिति दूसरी है |
'गीतांजलि' देखकर ध्यान आया कि मैं इसे पढने की एक बार असफल कोशिश कर चुका हूँ | फिर भी मैंने दुकानदार से 'गीतांजलि' निकालने को कहा है , जिसकी जर्जर अवस्था का आकलन करने में काँच की दीवार बाधा नहीं बन रही है | तुमने मनोहर कहानियों के बीच में से ओशो की कोई पत्रिका निकाली है | मैं गीतांजलि के मुखपृष्ठ पर छपा युवा रवींद्र का चित्र लम्बे समय तक देखता रहता हूँ | तुमने शायद पन्ने पलटने शुरू कर दिए होंगे | दुकानदार ने दो स्टूल डाल दिए हैं | थोड़ी देर बाद तुमने मुझे पत्रिका में से कुछ पंक्तियाँ पढने को कहा है | उसके बाद तुमने पत्रिका यथास्थान रखकर गीतांजलि के पैसे दुकानदार को चुकाए | ६० रुपये वापस लौटता देख मैं अनुमान लगता हूँ , शायद ४० की पुस्तक है |

हम मुगलसराय जंक्शन के प्लेटफ़ॉर्म ३ के वेटिंग रूम के बाहर लगे पत्थर पर बैठ गए हैं | तुम मेरे बायीं ओर | तुमने मोबाइल में earbud ठूँस कर एक लीड मेरे कान में लगा दी है , दूसरी अपने में | फिर कुछ असुविधा होने की वजह से दोनों को बदल दिया है |
कुछ सीमित गाने हैं तुम्हारी playlist में , जो एक के बाद एक कई बार चल चुके हैं | पूछने पर तुमने बताया कि ४ Enrique के और ३ Eric clypton के हैं |
मैंने गीतांजलि पढना शुरू कर दिया है | तुमने अपने बैग से Muslim-law की कोई किताब निकाली है | ट्रेन जल्द ही आने वाली है , इसकी सूचना मिल गयी है , लेकिन हम में से किसी ने भी पूर्ववत गतिविधि में कोई परिवर्तन नहीं किया है |

इसके बाद मुझे याद है , मैं धीरे-धीरे संगीत में खो रहा हूँ ,
एक बजे की रात्रि का संगीत ;
रवींद्र की कविता का संगीत ;
Layla का संगीत ;
प्लेटफ़ॉर्म पर आती ट्रेन का संगीत ;
और अभी-अभी तुमने कुछ कहा है , जो इतने संगीत एक साथ सुनने के बावजूद भी मुझे सुनाई दिया है और वह भी इन्ही संगीतों में घुल गया है | संगीतों के इस सम्मिश्रण का मुझ पर क्या प्रभाव हो रहा है , वह वह मेरी आँखें देखकर तुम पर जो प्रभाव हो रहा है ,उससे अनुमानित किया जा सकता है | तुमने मेरी आँखों से कुछ सन्देश ग्रहण किया है और उसका जवाब मुझे तुम्हारी आँखों से मिला है और महसूस हो रहा है कि हम मौन की एक लम्बी राह पर निकल पड़े हैं | इस बीच संगीतों का सम्मिश्रण भी सुनाई देता रहा है | ट्रेन गुज़र रही है , पर गुज़र नहीं रही है ; लग रहा है हमारे एक-एक हाथ जो 'गीतांजलि' और ' मुस्लिम-लों ' से मुक्त थे , उनसे हमने धरती को पकड़कर उसकी घूर्णन गति शून्य कर दी है और समय स्थिर है | समय मापने की कोई निरपेक्ष घडी होती तो मालूम होता कि अभी ४ मिनट के 'Layla' के गाने में हमने ४ सदियाँ गुज़ार दी हैं |


"दिमाग parallely भी काम कर सकता है , मुझे आज पता लगा "
"शायद केवल एक multitasking processor हो , time को slices में बाँट देता हो "
"नहीं , मैंने एक कैनवास देखा है , जिस पर एक जगह मौन पसरा था , एक जगह "तुमि / केमन क'रे गान क'रूजे , गुणी ! " , और फिर 'Layla' और ....और "तुम्हारी आँखें "
यह मैंने एक ही कैनवास पर देखा है , टुकड़ों में नहीं "

ट्रेन गुज़र चुकी है ..
"रवींद्र स्टाइल की दाढ़ी तुम पर सूट करेगी " तुमने मेरी ओर देखते हुए कहा |
मैं निचले होंठ के नीचे उँगलियाँ फिराता हूँ |
फिर हम एक साथ मुस्कुराते हैं और लौट पड़ते हैं |
एक आदर्श फ़िल्मी कहानी की तरह वक़्त अपनी रफ़्तार पकड़ लेता है |

4 comments:

डिम्पल मल्होत्रा said...

पोस्ट पढ़ के कुछ पल के लिए कुछ कहते नहीं बना जैसे किसी ट्रेन की खिड़की से दिखते हुए दृश्य जिन्हें देखा महसूस और याद रखा जा सकता है पर हर दृश्य का वर्णन नहीं किया जा सकता.जैसे मनपसंद संगीत का सुनना भर..

अपूर्व said...

मोहक पोस्ट..संक्षिप्त होने पर भी बहुत कुछ कहती है..मुखर मौन सी..कहानी एक मोनोलॉग सी होने के बावजूद इतनी प्रवाहमय और गतिशील लगती है..कि डायलाग सी मालूम होती है पढ़ने पर..ज्यों पाठक भी बगल की बेंच पर बैठा उसी ट्रेन का इंतजार कर रहा हो!..फिर मध्यरात्रि मे समय किसी पार्श्वसंगीत सा बज रहा होता है..रिपीट-मोड पर...रात्रि भी अजीब फितरत की होती है..किसी रसिक को और भी सांसारिक बना देती है..तो किसी वीतरागी को और भी आध्यात्मिक..यहाँ मुस्लिम लॉ और गीतांजलि दोनो इसी रात के अलग-अलग छोरों पर खड़े से लगते हैं..और बीच मे मौन की नदी सी बहती है..मुखर!
अच्छी कहानी..

DC said...

ye sameekshayen kuchh is prakar ki hai jo lekhan jaise gair jaroori kaam me lage logo ko garvit karti h
khair main ise padhkar punah kuchh pal ke liye usi manosthiti me jaa pahucha jo ye chhoti si kahani likhne ke dauraan thi

DC said...
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