Thursday, September 10, 2009

रात्रि बेला की ख्वाहिशें

गली-गली बने शिवालयों में
नीरव खामोशी
घुप्प अंधकार
और धुंधले चित्रों की क्रमहीन श्रंखला

मेरे प्यारे बनारस की धरती पर
मैं भरा हूँ
तुम्हारी दुनिया में
तुम्हारे आभामंडल की दुनिया
अंतहीन जैसे समय
चमकीली जैसे तारे

तुम्हारे बारे में सोचना
जैसे निहारना
दुग्ध-धवल झीनी चादर से
सुदूर आसमान
या सुनना
भादों के किसी बरसाती दिन
बूंदों का टिपटिपाना
या पढ़ना दुनिया की सबसे खूबसूरत कविता

तुम्हारा ख्याल
जैसे
अवरोहों को ठुकराती
पीत पुष्प पल्लवित नदी
या एक ज्योति
जो काल-कवलित शलभों को
कर देती है आलौकिक

मिट जाती है
बदन पर पुती हुई कालिख
और लज्जित मस्तक
हो जाता है निष्कलंक
जो नसीब हो तेरा स्पर्श
सारा विश्व बन जाता है गौड़
जो मिले तेरे आँचल में सोने का सुख

पतझड़ की किसी रात में
जो असमय जाग उठूँ
कोई भुतहा सपना देखकर
तो झकझोरता है मेरा अवचेतन
मुझे तोड़ देने चाहिए
लोहे के सींखचे
और गिरा देनी चाहिए
कंक्रीट की दीवारें
अपनी स्वतंत्रता के लिए

माँ ....

वे कौन लोग है??
जो हमें कैद कर गए हैं
खुली हवाओं में

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