Wednesday, April 1, 2009

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रस्मों को आज हम भुलाते चले गए
जख्म दर जख्म गले लगाते चले गए
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उन आंखों में लाने को चार खुशियाँ
हम अपनी आंखों पर पर्दा गिराते चले गए
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निकले थे कूचे से चंद अरमाँ लेकर
उनके लिए ख़ुद का ठिकाना भुलाते चले गए
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उलझी हुई थी जिंदगी की रस्सी पहले से ही
वो गाँठ पर गाँठ लगाते चले गए
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जिंदगी से हमे था याराना लेकिन क्या करिए
जिंदगी की खुशियाँ मैखाने में उडाते चले गए
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मेरे वजूद का हुआ कब उन्हें एहसास
मेरे जनाजे में वो गीत गुनगुनाते चले गए
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अजीब समां था यार DC की महफिल में
जो गिरा था उसी को गिराते चले गए

2 comments:

Heera said...

ultimate kavita hai
gajab ka ahsas hai tere is poem...
dil ko jhu gayi bhai sahi me....
ultimate....

RJT said...

nice poem yaar....
heart touching.....