Sunday, March 22, 2009

:: आशियाना ::



जब तुम पहली बार मिले थे ,
तब एक तूफान सा उमड़ा था
और मैं भी कितना नादाँ था
तूफाँ में आशियाँ बना रहा था
..... ........ ......
तब किसी ने टोका नहीं
"अमाँ ये कैसा पागलपन है
तूफाँ में आशियाने बनाते हो
ऐसे आशियाने कब तक टिकते हैं"
अब भी सोचता हूँ कि किसी ने रोका क्यो नहीं
शायद आशियाना उजड़ते देखना चाहते थे
या किसी को इतनी फ़ुर्सत कहाँ.
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लेकिन जब मेरा आशियाँ खाक-ए-दफ़न हो गया था
तो एक ने पूछा था "मियाँ! तुम तो तूफाँ मे आशियाँ बना रहे थे ,क्या हुआ?"
कोई और बोला-"काश!
हम से हिदायत ली होती बनाने से पहले"
ये दुनिया आशियाँ दफ़न होने के बाद हितैषी बनती है
शायद आशियाँ उजड़ते देखने का शौक है
या दुनिया के पास पहले देखने को आँखें नहीं होती
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अब जबकि इस बात को बीते एक अरसा हो गया है
और आशियाँ से जुड़े ख्वाबो पर मिट्टी की तह जम गई है
इस मुकम्मल दुनिया को तब भी चैन कहाँ
किसी की हिदायत कानों पड़ती है
"भाई! आदमी के पास एक खुद का आशियाँ तो होना चाहिए
ऐसे कब तक रहोगे"
लेकिन मैं उन्हें कैसे समझाऊ
मुझे केवल तूफाँ में काम करने का शौक है
और आजकल जिसकी दस्तक होती है
वो तूफाँ नहीं बस एक हल्का सा झोंका है
जो दरवाजे को धकेल कर जाता है
दरवाजा धीरे-धीरे खुलता है और कुछ दूर जाकर रुक जाता है

::: :) DC (: :::

3 comments:

शोभित जैन said...

Bahut hi damdaar prastuti hai bhai....
bahut se rang samete hue hai...

DC said...

@ shobhit ji..
आपका ह्रदय से आभार प्रकट करता हूँ
आप इसी तरह मेरा हौसला बढ़ाते रहे ....शायद कुछ और रंग निकले ..
बहुत-बहुत धन्यवाद

डिम्पल मल्होत्रा said...

fursat se padne wali hai apki sari rachnaye.gr8 work.main thora sa hairaan bhi hun etna badhiya likha hai.ufff..