Sunday, May 10, 2009

समय का ये कौन सा दौर है
लगता है
मौसम ने घोंट के सारी संवेदनाएं
घोल दी है तन्हाई
न स्मृति के फाटक पर यादों की दस्तक होती है
न चित्रों चलचित्रों से हास्य रुदन की भावनाएं आती हैं
बस विचारों की खींचातानी मची रहती है
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सूरज लगता है कोई बंधुआ मजदूर
मद्धम पड़ गयी है उसके चेहरे की लालिमा
क्योंकि करवाया जा रहा है जबरन कठोर परिश्रम

दुनिया मुर्दों की बस्ती दिखती है
जिसमें आदमी बना है कठपुतली
और उसकी गतिविधियाँ
परसंचालित मशीनी क्रियाकलाप
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भावनाएं यदि सच में मर गयी हें
तो क्यूँ नहीं देते इन लाचार पेडों को आराम
जो निर्जन बस्ती में बेवजह oxygen दे रहे हैं

और यदि भावनाएं अभी तक हैं जिंदा
तो परखने का होता है मन
कोई पकड़ ले नसेनी
तो मैं आसमान पर चढ़ कर
उतार लूँ चाँद
और देखूं
कितने बच्चे मामा के खोने से होते हैं ग़मगीन
और कितने प्रेमी अपनी महबूबा के वियोग में करते हैं आत्महत्याएँ


असलियत तो ये है
कि जो है वही रहता है
फिर ना जाने इस खींचातानी और उधेड़बुन से
मुझे मिलती है कौन से ग्यारहवे रस की अनुभूति

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