कभी-कभी सोचता हूँ
बंद कर दूँ ये कविता लिखना
कविताएँ पढ़कर
कभी लुटाये होंगे सैनिकों ने प्राण
और बदली गयी होगी दुनिया किसी ज़माने में
पर मैं आश्वस्त हूँ
मेरी कविता से कुछ नहीं हो सकता
न तो मैं मुर्दों में जान फूंक सकता हूँ
न मैं बदहालों को कुछ दिला सकता हूँ
मेरी चार पंक्तियाँ न तो सरकारें बदल सकती हैं
न ही ह्रदय परिवर्तन करा सकती हैं
नहीं मुमकिन मिटा दूँ हिन्दू-मुस्लिम झगडे
दिला दूँ गति उन कामों को जो हैं कहीं ठहरे
न मुझे किसी प्रेयसी के लिए लिखना है
न ही मुझे शायर या कवि बनना है
शायद ही मेरी कविताओं से किसी परेशानी का हल निकले
या मेरी स्वयं की ही मुश्किलें सुलझे
फिर मैं क्यूँ लिखूं?
कविताएँ लिखना है शायद निश्चिंतों की जागीर
मैं हूँ उस गरीब गृहस्थ की तरह
जो कराना चाहता है अखंड रामायण और भगवदगीता का पाठ
पर गरीबी हमेशा आ जाती है आड़े
ये सब जानते हुए भी
ख़ुशी के उन अनन्यतम क्षणों में
यदि दो पंक्तियाँ ठहर जाएँ जेहन में
तो छटपटाती रहती हैं जल बिन मछली जैसी
कागजी समंदर में गोते लगाने को व्याकुल
गले में अटके कौर की तरह
उठती रहती है इक हूक
और जब उतार दूँ उन्हें एक कागज़ पर
तो लगता है
उतर गया है एक बोझा
जो बरसों से कन्धों पे रखा था
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