मैंने बचपन में सोचा था कि
पढूंगा वैदिक दर्शन के बारे में,
जानूँगा क्या होता है साररूप होना,
क्या होता है अद्वैत दर्शन का तत्वमसि हो जाना |
सोचा था कि क्या है कृष्ण में
जो खींचे रखता था रसखान को अपनी ओर,
क्यों मीरा इतनी पागल थी,
और क्यूँ लोग कबीर के इतने दीवाने होते हैं?
मैंने चाहा कि जानूँ सूफी संतों के बारे में
क्यूँ उनके चेहरे तेज़ से भरपूर होते हैं,
कैसे पाते हैं वो ईश्वर प्रेम के जरिये ?
मैंने चाहा कि जानूँ बुद्ध को,
कौन सा जादू था उनके वचनों में,
उनके चेहरे में ,
जो उन्हें देखकर लोग बन जाते थे उनके भक्त,
जो रात भर में उनके अनुयायी समंदर पार भी बन जाते थे |
ठीक उसी समय जब मैं ये सब जानने ही वाला था,
उन्होंने मुझे रोका और बताया
कि वैदिक दर्शन जानने के पहले जरूरी है
जानो देवी-देवताओं की संख्या,
जानो देश भर में कितने राम मंदिर हैं
और कितनों के बगल में मस्जिद हैं ;
और कबीर को जानना इतना इम्पोर्टेंट नहीं है
जितना महाराणा प्रताप को जानना,
परशुराम को जानना,
और यह जानना कि छत्रपति शिवाजी कितने वीर थे
और कैसे औरंगजेब को नाकों चने चबाने पड़े थे |
उन्होंने बताया कि
तुम्हारे बाबा के बाबा के मौसा को
उनके ही गाँव के एक आदमी ने मार डाला था
और उस आदमी का मजहब तुम्हारे सूफी संत के मजहब से मेल खाता है,
इसलिए वह सूफी संत ख़ूनी है |
और बुद्ध को उन्होंने विष्णु का दसवां अवतार बताया
"और चूँकि राम भी थे विष्णु के अवतार
इसलिए राम और विष्णु एक ही हैं ,
और कोई जरूरत नहीं रह जाती तब बुद्ध को जानने की"
उन्होंने कहा .
इतने सब ज्ञान के बाद उन्होंने मुझे आज्ञा दी
"जाओ मेरे धर्म-रक्षक, देशभक्त, वीर ,
और इस बेवकूफ दुनिया को भी बतलाओ
असली और नकली का भेद"
तब से मैं जहाँ भी जाता हूँ,
वहाँ फट जाता हूँ और पैदा करता हूँ
अपने ही जैसे पचास भस्मासुर
"ऐसा करने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है"
ऐसा उनका कहना है.