Friday, September 11, 2009

अभिलाषा

वे भुलाती हुई
हमारी सारी वेदनाएँ और सुख
समय और उम्र
जन्म ले लेती हैं
जटिल से जटिल परिस्थितियों में

उनके आश्रय में हम
लहरों की अंगडाई सुला देते हैं
आकाश की ऊँचाई मिटा देते हैं
आँधियों में दीप जलाने लगते हैं
पत्थर की छाती पर नव-अंकुर उगाने लगते हैं
वे उडाकर हमारी नींदें
चाहती हैं नियति का सर कलम करना

ऐसी ही होती हैं अभिलाषाएँ
छोटी,बड़ी,स्वान्तःसुखाय या परिजनहिताय

जैसे मेरी अभिलाषा कहती है कि
जब मैं नव-सृष्टि के सृजन को आगे बढूँ
तो तुम आओ मेरे साथ
और जब शिथिलता मेरे बदन पर आकर बंधक बनाने का करे प्रयास
तो तुम मुझे प्रेरित करती
अपने हाथों से पिलाओ...ओक भर पानी

5 comments:

Asha Joglekar said...

और जब शिथिलता मेरे बदन पर आकर बंधक बनाने का करे प्रयास
तो तुम मुझे प्रेरित करती
अपने हाथों से पिलाओ...ओक भर पानी
Bahut sunder,

वाणी गीत said...

बेहद सुन्दर रचना ..अभिलाषा पूर्ण हो ...
बहुत शुभकामनायें..!!

संजय तिवारी said...

आपकी लेखन शैली का कायल हूँ. बधाई.

Udan Tashtari said...

बहुत उम्दा!

DC said...

शुक्रिया आशाजी,वाणी जी,संजय जी और समीर जी
ऐसे ही अपना अमूल्य समय देते रहे