वे बादलों पर बैठकर आसमान घूमने के दिन थे
महकते फूलों पे बैठी तितलियाँ पकड़ने के दिन थे
वे पोसमपा खेलने झूला झूलने के दिन थे
नंगे पाँव गाँव की सरहदे पार करने के दिन थे
वे शीशम की छाँव तले चिड़ियाँ निहारने के दिन थे
रहट की बाल्टियाँ चढाने,उतारने के दिन थे
वे अलस्सुबह दोस्त को बुलाने के दिन थे
किरपू के बाग से करोंदे चुराने के दिन थे
वे नीम से कौवों को भगाने के दिन थे
बहती पुरबई सीने से लगाने के दिन थे
वे अधपके बेर चबाने के दिन थे
वे बेसुरी बांसुरी बजाने के दिन थे
अम्मा से चवन्नी पाने के दिन थे
किताबों में फूल छिपाने के दिन थे
वे रेत में पाँव बनाने के दिन थे
रंगीन गुब्बारे उडाने के दिन थे
बकरियों को मेड़ों पे चराने के दिन थे
छत से काई की परतें हटाने के दिन थे
भोली बहना को सताने के दिन थे
माँ को हर बात बताने के दिन थे
वे टंकी में पैर डुबाने के दिन थे
मदमस्त अंदाज़ में रोने गाने के दिन थे
बिना शरमाए नंगे नहाने के दिन थे
खाते,पीते फुर्र उड़ जाने के दिन थे
सोंधास लिए लायी-चना खाने के दिन थे
मिटटी के घर बनाने-गिराने के दिन थे
नयी बुश्शर्ट पहनकर इतराने के दिन थे
अरहर के पेड़ों में छिप जाने के दिन थे
वे रूठने के बाद मन जाने के दिन थे
कल्पना की उडानें उडाने के दिन थे
वे सोये हुए अल्हड ख्वाबों से दिन थे
सुर्ख महकते हुए नर्म गुलाबों से दिन थे
.........इस उद्देश्यहीनता में छिपा हुआ उद्देश्य है कि वह उद्देश्य पुनः उद्देश्यहीनता है,बुझ जाने की मांग है........ .....अभिप्राय मैं नहीं जानता,तुम्हें जानता हूँ, और जानता हूँ कि जितने स्वप्न मैंने देखे हैं,सब तुममें आकर घुल जाते हैं.........("शेखर: एक जीवनी" से )
Saturday, August 15, 2009
Monday, August 3, 2009
ये जख्मों का किस्सा पुराना है...
ये कैसी हलचल है,कैसा आना-जाना है
जाओ,मयकशी है यहाँ,ये मेरा आशियाना है
.
वक़्त ने भुला दिए हैं,अब न कुरेदो इनको
गोया जल उठूँगा,ये जख्मों का किस्सा पुराना है
.
कौन जाने अबकी बिछ्ड़े तो कल को कब मिलें
आजमा ले आज,जितना आजमाना है
.
आवारा-मिज़ाजी हमारी सीखने ही न देगी
क्या छिपाना है जहाँ में और क्या दिखाना है
.
बेसबब इंतज़ार में रुत गयी यूँ ही
वाँ बेरुखी का आलम है,हर पल बहाना है
.
मुश्किलों से जोडो यारी,बतलायेंगी वही
समझते हैं जिसको अपना,शख्स वो बेगाना है
जाओ,मयकशी है यहाँ,ये मेरा आशियाना है
.
वक़्त ने भुला दिए हैं,अब न कुरेदो इनको
गोया जल उठूँगा,ये जख्मों का किस्सा पुराना है
.
कौन जाने अबकी बिछ्ड़े तो कल को कब मिलें
आजमा ले आज,जितना आजमाना है
.
आवारा-मिज़ाजी हमारी सीखने ही न देगी
क्या छिपाना है जहाँ में और क्या दिखाना है
.
बेसबब इंतज़ार में रुत गयी यूँ ही
वाँ बेरुखी का आलम है,हर पल बहाना है
.
मुश्किलों से जोडो यारी,बतलायेंगी वही
समझते हैं जिसको अपना,शख्स वो बेगाना है
Saturday, August 1, 2009
वो प्रेम का त्यौहार हूँ
मधुऋतु की कोमल बयार हूँ
गले का आशातीत हार हूँ
आया हूँ तुमसे मिलने
मैं जीवन की मधुता का सार हूँ
खुशबू बिखेरूँ चमन में
कर दूँ समर्पित आगमन में
मुरझा न सके जिसको अनल
मैं सुमन वो नव आकार हूँ
मलय जिसे उड़ा न सके
जलाधार जिसे डिगा न सके
निकलेंगी लहरी हर ऋतु
वो वीणा वरद का तार हूँ
हूँ रंग वो जीवन भरूँ
अनुभूति जो सुखानंद दूँ
इति न हो जिसकी कभी
वो प्रेम का त्यौहार हूँ
अवसाद, कुंठा, विषमता
संशय, भय और अगमता
इन्हें क्षीण, क्षुद्र, भंगुर करूँ
मैं वो प्रबल हथियार हूँ
सिन्धुतृषा को बिंदु से भर दूँ
मरुवन को मैं पुष्पित कर दूँ
नीरस को बहुरस-रंगी कर दूँ
मैं वो ललित कलाकार हूँ
धरती से लेकर ब्रह्माण्ड तक
कण-कण और हर एक खंड तक
गूंजेगा जो दिग-दिगंत तक
मैं शब्द वो साकार हूँ
गले का आशातीत हार हूँ
आया हूँ तुमसे मिलने
मैं जीवन की मधुता का सार हूँ
खुशबू बिखेरूँ चमन में
कर दूँ समर्पित आगमन में
मुरझा न सके जिसको अनल
मैं सुमन वो नव आकार हूँ
मलय जिसे उड़ा न सके
जलाधार जिसे डिगा न सके
निकलेंगी लहरी हर ऋतु
वो वीणा वरद का तार हूँ
हूँ रंग वो जीवन भरूँ
अनुभूति जो सुखानंद दूँ
इति न हो जिसकी कभी
वो प्रेम का त्यौहार हूँ
अवसाद, कुंठा, विषमता
संशय, भय और अगमता
इन्हें क्षीण, क्षुद्र, भंगुर करूँ
मैं वो प्रबल हथियार हूँ
सिन्धुतृषा को बिंदु से भर दूँ
मरुवन को मैं पुष्पित कर दूँ
नीरस को बहुरस-रंगी कर दूँ
मैं वो ललित कलाकार हूँ
धरती से लेकर ब्रह्माण्ड तक
कण-कण और हर एक खंड तक
गूंजेगा जो दिग-दिगंत तक
मैं शब्द वो साकार हूँ
Abhivyakti ki khaatir
कभी-कभी सोचता हूँ
बंद कर दूँ ये कविता लिखना
कविताएँ पढ़कर
कभी लुटाये होंगे सैनिकों ने प्राण
और बदली गयी होगी दुनिया किसी ज़माने में
पर मैं आश्वस्त हूँ
मेरी कविता से कुछ नहीं हो सकता
न तो मैं मुर्दों में जान फूंक सकता हूँ
न मैं बदहालों को कुछ दिला सकता हूँ
मेरी चार पंक्तियाँ न तो सरकारें बदल सकती हैं
न ही ह्रदय परिवर्तन करा सकती हैं
नहीं मुमकिन मिटा दूँ हिन्दू-मुस्लिम झगडे
दिला दूँ गति उन कामों को जो हैं कहीं ठहरे
न मुझे किसी प्रेयसी के लिए लिखना है
न ही मुझे शायर या कवि बनना है
शायद ही मेरी कविताओं से किसी परेशानी का हल निकले
या मेरी स्वयं की ही मुश्किलें सुलझे
फिर मैं क्यूँ लिखूं?
कविताएँ लिखना है शायद निश्चिंतों की जागीर
मैं हूँ उस गरीब गृहस्थ की तरह
जो कराना चाहता है अखंड रामायण और भगवदगीता का पाठ
पर गरीबी हमेशा आ जाती है आड़े
ये सब जानते हुए भी
ख़ुशी के उन अनन्यतम क्षणों में
यदि दो पंक्तियाँ ठहर जाएँ जेहन में
तो छटपटाती रहती हैं जल बिन मछली जैसी
कागजी समंदर में गोते लगाने को व्याकुल
गले में अटके कौर की तरह
उठती रहती है इक हूक
और जब उतार दूँ उन्हें एक कागज़ पर
तो लगता है
उतर गया है एक बोझा
जो बरसों से कन्धों पे रखा था
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