
बचपन में जब मैं गाँव की गलियों में चलता था
तब मेरे साथ चलती थी मेरी परछाई
वही परछाई ....
कभी लम्बी लगी कभी छोटी
कभी आगे तो कभी पीछे होती
कभी दीवारों पर चलती
और कभी पेड़ों को छूती
ऐसा भी हुआ ...
जब हमने अपनी परछाई को दूसरों की परछाई से बड़ा करना चाहा
और कभी दूसरों की परछाई कुचल देनी भी चाही
कभी आगे दौडे तो कभी पीछे हटे
किसी के सर पर पैर रखे तो किसी के हाथों से पैर मिलाये
इसी तरह दिन बीते अपने
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एक रोज जब मैं बड़ा हुआ
तो देखा मेरे साथ न थी वो परछाई
कहीं गायब हो गयी है
उसी की तलाश कर रहा हूँ
::: :) DC (: :::